अब शोकसभा नहीं, संकल्पसभा हो

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यह निश्चित है कि पुलवामा जैसी घटनाएं प्रत्येक संवेदनशील भारतीय को द्रवित तथा विचलित करती हैं। अतःकरण व्यथित होता है और जिन्होंने वीरगति प्राप्त की है, उनके प्रति मन में एक श्रद्धा का जन्म होता है। साथ ही एक निराशा भी जन्म लेती है कि कब तक हमारे सपूत तिरंगे में लिपट कर अपने घर आते रहेंगे। समय चक्र चलता रहता है, आतंकी अपनी हिंसात्मक गतिविधियों से हमारे सैनिकों की हत्या करते रहते हैं, फिर वही तिरंगे में लिपटा सैनिक तथा शोकसभाओं में दो मिनट का मौन। क्या यही राष्ट्र के प्रति हमारा कर्त्तव्यनिष्ठता की इतिश्री है।

जो देश के लिए वीरगति प्राप्त करते हैं, वो किसी एक विशेष परिवार तक सीमित नहीं रहते। उनका स्मरण तथा उनका कृत्य सम्पूर्ण राष्ट्रीय समजा की भावनाओं का एक अंग बन जाता है। भौतिक रूप में उपस्थित न होने पर भी उनका आत्म तत्व इतनी अधिक विराटता ग्रहण कर लेता है कि वे हमारे स्वजन हो जाते है। इस भावनात्मक रिश्ते को निभाने में स्वामी विवेकानंद सुभारती विश्वविद्यालय, मेरठ तथा रास बिहारी बोस सुभारती विश्वविद्यालय, देहरादून सदा आगे रहा है। सुभारती परिवार वीर हुतात्माओं के बच्चों को शिक्षण की समुचित सुविधाएं निःशुक्ल प्रदान करने के लिए दृढ़ संकल्पित है, यह सुभारती परिवार का प्रेरणादायक अभियान है, यदि देश भर में इसको विस्तार दिया जाता है वीरगति प्राप्त अभिनन्दनीय सपूतों के परिवारों को हम सम्मान तथा अपनत्व प्रदान कर सकते हैं। हम यह मानते हैं कि जो देश के लिए शहीद हो जाते हैं, केवल वे ही हमारे लिए सम्मान के पात्र न हों, बल्कि वे वीर प्रसूता माताएं हमारे लिए अति वंदनीय रही हैं जिन्होंने अपनी कोख से ऐसे वीरों को जन्म दिया। जिन्होंने अपने प्राण दे दिए, लेकिन भारत माता के आंचल पर दाग नहीं आने दिया और अपनी जननी की कोख की लाज रख उसको भी धन्य किया।

सुभारती परिवार ऐसी वीर प्रसूता माताओं और उनके परिजनों को सम्मानित करता आया है। वीरगति प्रदान करने वाले के लिए शोकसभाओं का आयोजन तथा मोमबत्ती लेकर मार्च करना, उनके प्रति न तो वास्तविक श्रद्धांजलि है और न ही अपनापन। शोकसभाएं निराशा तथा हताशा का प्रतीक हैं। क्यों न भारत माता के सपूत के आत्मोत्सर्ग को हम उस समस्या को जड़मूल से समाप्त करने का संकल्प बना दें, जिस कारण हमारे सैनिकों को अपना प्राण देने होते हैं। राष्ट्र की रक्षा का दायित्व राष्ट्रजन का पवित्र तथा अनिवार्य कर्त्तव्य है कि उन्हें हम भावनात्मक तथा स्नेहिल ऊर्जा दें और राष्ट्र को सुरक्षित तथा विकसित बनाने के लिए जनचेतना का विस्तार करें। एक सैनिक से सलामी की आशा क्यों रखें, हम हर जवान को सलामी देने में विश्वास रखते हैं। केवल अपने सैनिकों के शवों की गिनती करना और फिर आंखों से आंसुओं की धारा को प्रवाहित कर देना, प्रर्याप्त नहीं है और न ही समस्या का समाधान।

इस समय आवश्यकता है कि हम एक राष्ट्र के रूप में कैसे अभिव्यक्त हों और कैसे पापलिल्त तथा हिंसक तत्वों के प्रहारों की धार को कम किया जा सके। यह सही है कि पाकिस्तान एक विकृत मानसिकता तथा जड़वादी सोच का देश है। वह संवाद के शिष्टाचार में परिवर्तित होने वाला नहीं है। विगत तीन दशकों से पाकिस्तान कश्मीर की हमाच्छादित पर्वतमालाओं को बारूद की दुर्गंध से अपवित्र कर रहा है। हमारी सेना पाकिस्तान के इस दुश्चक्र को तोड़ने के लिए पूरे मनोभाव से कार्य कर रही है। पर रक्तबीज दानव की भांति एक के बाद दूसरा आतंकी खड़ा हो जाता है। ऐसे रक्तबीजों को केवल सेना नहीं रोक सकती, इसके लिए राष्ट्रवादी संकल्पों में संस्कारित समाज तथा इच्शाशक्ति से परिपूर्ण तथा भारतीयता को समर्पित राजनीति की आवश्यकता है। अभी तक समाज शोक मनाता आया है और राजनेता बयान देते आए हैं कि इस कायतापूर्ण हमले की निंदा करते हैं। किसी भी सैनिक की मौत पर इस प्रकार की रस्म, अदायगी के लिए अब देश तैयार नहीं है। थोड़ा सा अतीत में जाएं, हमारी शोकसभाओं ने देश की अखंडता तथा उसकी अस्मिता पर अनेक बार कठोर प्रहार किए, हम मानसिक तौर पर यह संतोष अनुभव करते रहे कि हमने देश के प्रति दायित्वों की पूर्ति कर दी है लेकिन इससे भावनात्मक रूप से देश निर्बल हुआ और मनोबल पर नकारात्मक प्रभाव भी पड़ा। हम न तो देश की सम्प्रभुता पर हमलों को रोक पाए और न ही अपने वीर लालाों का सम्मान कर पाए, न ही इस सरकारों को सही दिशा निर्धारण के लिए जन दबाव बना पाए।।

कश्मीर प्रकरण हमारी शोकसभाओं और जन दबाव के अभाव का ही ज्वलंत उदाहरण है। पाकिस्तान सेना ने जनजाति समहू के रूप में 21 अक्टूबर 1947 को कश्मीर राज्य पर आक्रमण कर दिया। राज्य के शासक महाराजा हरिसिंह के पास पर्याप्त सेना नहीं थी, वे स्वयं पाकिस्तान सेना का सामना नहीं कर सकते थे। नेहरू की यह जिद थी कि जब तक महाराज विलय पत्र पर हस्ताक्षर नहीं करते तब तक सेना को नहीं भेजा जाएगा। 25 अक्टूबर 1947 तक पाकिस्तान सेना श्रीगनर के निकट तक आ गई थी, 26 अक्टूबर 1947 को विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए गए। इसके पश्चात भारतीय सेना वहां गई। लेकिन भारत सरकार ने कश्मीर रक्षा पर विशेष ध्यान देने के बजाय निंदा प्रस्ताव लिखने पर अधिक ध्यान दिया गया। 25 नबम्बर 1947 को अभिवाजित कश्मीर मीरपुर में विश्व का सबसे क्रूरतम नरसंहार पाकिस्तानी सेना द्वारा किया गया था, बीस हजार निर्दोषों के कत्ल के समाचार ने देश को हिला दिया। देश शोकसभाएं तथा मृतकों की आत्मा की शान्ति के लिए यज्ञ ही करता रहा। यदि उस समय ही भारत सरकार पर इस प्रकार का जनदबाव बनाया जाता कि कश्मीर की रक्षा के लिए अतिरिक्त सेना भेजी जाए तो आज कश्मीर का विशाल भूभाग पाकिस्तान के अधिकार में न होता।

नेहरू ने 1 जनवरी 1948 को सुरक्षा परिषद में पाकिस्तान द्वारा किए गए आक्रमण को रोकने के प्रस्ताव को भेजकर अपने हाथ और कटवा दिए। इस प्रस्तवा के पूरे एक साल तक पाकिस्तानी सेना कश्मीर के विभिन्न क्षेत्रों पर आक्रमण, नरसंहार और लूट करती रही, हम सुरक्षा परिषद का मुंह ताकते रहे कि वह हमारी सहायता करेगी, पर उस ओर से कुछ नहीं हुआ। यदि भारत सरकार में देश के प्रति संकल्पधर्मिता होती और देश की जनता सजग होती तो आज पुलवामा का राजमार्ग हमारे वीरों के रक्त से लाल न होता। चीन के आक्रमण के समय भी भारत सरकार का व्यवहार बहुत निराशाजनक तथा देश का मनोबल तोड़ने वाला था। राष्ट्र की प्रतिष्ठा को सुरक्षित रखने का संकल्प कहीं भी दिखाई नहीं दिया। सन 1962 के मध्य यह स्पष्ट हो गया था कि चीन कभी भी भारत पर आक्रमण कर सकता है। भारतीय सैनिकों के पास बर्फ में लड़ने के लिए वस्त्र तथा जूते तक नहीं थे। सैनिकों को सुविधाएं देने के बजाय तत्कालीन रक्षा मंत्री कृष्ण मेमन संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में भाग लेने के लिए 17 सितम्बर 1962 को न्यूयार्क गए, लेकिन दो दिवसीय सम्मलेन होने के बाद 14 दिन बाद भारत लौटे। इसी तरह से नेहरू राष्ट्रमंडल प्रधानमंत्री सम्मलेन में भाग लेने के लिए 8 सितम्बर 1962 को ब्रिटेन गए थे। वापस 24 दिन बाद 2 अक्टूबर को आए।

सेनाध्यक्ष कौल 2 अक्टूबर को अवकाश से वापस आए और सीमा पर हो रही गतिविधियों की परवाह न करते हुए 16 अक्टूबर को पुनः अवकाश पर चले गए। एयरक्राफ्ट करियर विक्रांत को सैन्य अभियान के निदेशक के नेतृत्व में विश्व भ्रमण के लिए भेज दिया गया। चीन ने स्थिति का लाभ उठाया और 20 अक्टूबर दीपालवी के दिन चीन ने आक्रमण कर दिया। युद्ध केवल हथियारों से नहीं जीता जाता, राष्ट्रीय समाज की चेतना, उसका समर्पण भाव, शासक वर्ग की कुशलल रणनीति तथा दृढ़ संकल्प सेना का सम्मान विजय की परिस्थिति पैदा हो, लेकिन यह भी नहीं चाहते कि देश में युद्ध का वातावरण पैदा हो, लेकिन यह भी नहीं चाहते कि भारतीय वीरों की कायरतापूर्ण हत्याएं होती रहें। इसलिए जातिवाद, धर्मवाद, राजनीतिक पूर्वाग्रह होकर संकल्पनिष्ठा भारतीय के रूप में अपने कर्त्तव्यों का पालन करे।।

डॉ. अतुल कृष्ण
राष्ट्रीय संयोजक, उन्मुक भारत

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