अब विकेट गिराने लगा वक्त

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हा था। और वह था भी। किसी को कुछ बोल देना। न्याय, कानून की परवाह ना करना। लेकिन आज वही अरनब जेल में है। और कोई भरोसा नहीं कि दस नवंबर के बाद बिहार पुलिस उसकी कस्टडी लेने मुंबई न पहुंच जाए। आखिर उसने बिहार को और बिहार के सुशांत सिंह राजपूत को इतना बदनाम जो किया है। इसी मामले में तो बिहार पुलिस पहले भी मुबंई गई थी। और अब नई सरकार के तहत एक बार फिर जा सकती है।

तो पहले समय ने अरनब को उसकी हैसियत बताई। फिर बिहार के एक्जिट पोल ने न्यूज चैनलों के न चाहने के बावजूद ऐसी सच्चाई पेश कर दी कि गोदी मीडिया की स्थिति न उगलते बने न निगलते वाली हो गई। डाटा कितना छुपाएं? वह चीख चीख कर कह रहा है कि जनता ने महागबंधन को बहुत बड़ा बहुमत दिया है। नकली मुद्दे सारे हवा हो गए। कोई साम्प्रदायिक, जातिगत विभाजन की राजनीति नहीं चली। जनता ने असली मुद्दों रोजगार, शिक्षा, मंहगाई पर वोट दिया। भाजपा एक बार फिर बिहार में अपना मुख्यमंत्री बनाने का सपना पूरा करने में नाकामयाब दिख रही है। बिहार को छोड़कर हिन्दी बेल्ट के हर राज्य में वह अपना मुख्यमंत्री बना चुकी है। मगर समय ने यहां भी बता दिया कि बलवान वही है।

और इस समय का तीसरा प्रमुख मुद्दा है डोनाल्ड ट्रंप का हारना। अमेरिका के चुनावों पर हिन्दी अखबार कम ही लिखते हैं। और जो लिखते हैं वह काफी सतही। मगर इस बार इस अख़बार नया इंडिया के संपादक हरिशंकर व्यास ने शायद दर्जनों पेज वन संपादकीय लिखे और बहुत स्पष्ट तौर बताया कि ट्रंप हार रहा है और क्यों हार रहा है! यह पत्रकारिता का साहस और दायित्व दोनों है, जिसे आज बहुत कम पत्रकार निभा पा रहे हैं।

ट्रंप का हारना दुनिया में कई सत्यों को पुनर्परिभाषित करने वाला भी है। इनमें एक यह कि वहां संस्थाओं की मजबूती फिर साबित हुई है। यह वहां के इंस्टिट्यूशन की जीत है। वहां की ज्यूडिशरी और मीडिया ने सत्ता के किसी भी दबाव में आने से इनकार कर दिया। हमारे यहां के इंस्टिट्यूशन इससे कोई सबक लेंगे, कहना मुश्किल है। दुनिया भर के चैनल जहां उप राष्ट्रपति कमला हैरिस की जीत पर गहन विश्लेषण कर रहे हैं।

महिला सशक्तिकरण, एशिया, अफ्रिकी महिलाओं के बारे में बात कर रहे हैं, वहीं हमारे चैनल कमला और हमला जैसी फुहड़ तुकबंदियां करके खुद को नंबर एक बता रहे हैं। उन्होंने यह भी मालूम करने की कोशिश नहीं की कि कमला हैरिस के उपराष्ट्रपति के लिए नामजद होने के बाद डेमोक्रेट का चुनाव अभियान किस तरह गति पकड़ गया। इससे पहले वहां बाइडन का प्रचार क्लिक नहीं हो पा रहा था। कमला भारतीय मूल की तो हैं ही अमेरिका के दो सदी से ज्यादा के इतिहास में पहली महिला उपराष्ट्रपति भी हैं। यह हमारे लिए गर्व की इसलिए भी बड़ी बात है कि हमने 55 साल पहले ही इतिहास रच दिया था। इन्दिरा गांधी दुनिया की पहली महिला राष्ट्राध्यक्ष थीं। और प्रसंगवश यह भी कि वे एक मात्र ऐसी प्रधानमंत्री थीं कि जो हमेशा दुनिया के सबसे ताकतवर देश अमेरिका की ईंट का जवाब पत्थर से देती थीं। चाहे पोकरण का परमाणु परीक्षण हो या पाकिस्तान के दो टुकड़े करने का।

खैर विषय था ट्रंप का। तो जब चुनाव प्रक्रिया शुरू हुई तो सारी अंतरराष्ट्रीय परंपराओं को ताक पर रखकर हमारे प्रधानमंत्री हाउडी मोदी करने अमेरिका गए। और वहां अब कि बार ट्रंप सरकार का नारा देकर विदेशी चुनाव में एक पार्टी बन गए। और उसके बाद भारत के साथ जो सबसे गलत काम हुआ वह यह कि कोरोना को पीक टाइम में ट्रंप यहां आए। गुजरात में हजारों लोगों को इकट्ठा करके नमस्ते ट्रंप किया गया। भारत में कोरोना की पहली लहर तभी फैली। चुनाव के भी कुछ नियम होते हैं, नैतिकता होती है। जैसे चंबल के इलाकों में ज्यादातर प्रत्याशी और कई राजनीतिक दल बागियों (यहां दस्यु सरदारों को कुछ डर और कुछ लिहाज की वजह से बागी कहने का चलन रहा है) की मदद लेते हैं।

मगर कुछ नेता ऐसे भी रहे हैं कि जिन्होंने कभी डाकुओं का समर्थन नहीं लिया। वे जीते भी हारे भी, नुकसान भी हुआ मगर एक सिद्धांत बनाकर रखा कि डाकुओं का समर्थन नहीं लेना। क्योंकि स्वाभाविक है कि बाद में डाकुओं की और उनके आदमियों की मदद करना पड़ती है। मध्यप्रदेश के अभीहुए उप चुनावों में इस समय का चंबल का सबसे बड़ा आत्मसमर्पित बागी मलखान सिंह खुलकर भाजपा का प्रचार कर रहा था। वह इससे पहले सपा के साथ भी रह चुका है। जो पार्टी सत्ता में होती है बागी उसकी तरफ ज्यादा आकर्षित होते हैं। लेकिन गांव की आम जनता डाकुओं का हस्तक्षेप पसंद नहीं करती है।

भारतीय ट्रंप के हारने पर जरूरत से ज्यादा खुश हैं तो इसकी वजह है। उनके बेहिसाब झूठ, भारत से धमकी देकर हाइड्रोक्लोरोक्वीन दवा लेना और कोरोना के समय भारत आकर मजमा जोड़ना। ट्रंप की इन हरकतों ने लोगों के दिलों में आग लगा दी थी। और फिर ट्रंप ने इस आग में घी डालने का काम किया भारत कोगंदा बताकर। उनका यह कहना कि यहां की हवा गलीज (Filthy) है, भारतियों के तन बदन में आग लगा गई। इसलिए शायद ही कोई हो जो ट्रंप की हार से खुश नहीं हुआ हो। मगर सबसे बड़ी बात यह है कि लोगों की इस आशावादिता को बल मिला कि झूठ का अंत होना ही है। बांटो और राज करो की राजनीति अनंत काल तक नहीं चल सकती। प्रेम की कोई एक्सपायरी डेट नहीं होती मगर नफरत की होती है। विकेट अभी फिलहाल तीन गिरे हैं, मगर झूठ का पूरा बेटिंग आर्डर लड़खड़ाता सा लग रहा है!

शकील अख्तर
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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