अब टाइम के पेट में दर्द

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पत्रकारिता में कब, कौन, किस वक्त क्या लिख दे कोई नहीं जानता। खासकर विदेशी मीजिया में भारत का जिक्र भले ही ज्यादा न होता हो लेकिन चुनाव के वक्त सब जाग जाते हैं। प्रतिष्ठित ब्रिटिश पत्रिका ‘द इकॉनोमिस्ट’ के बाद अब अमेरिकी पत्रिका ‘टाइम’ ने भी अब नरेंद्र मोदी कीड़ी आलोचना की है। पत्रिका ने लिखा है कि सरकार न सिर्फ आर्थिक मोर्चे पर विफल हुई है, बल्कि उसने भारत में एक जहरीले धार्मिक राष्ट्रवाद के वातावरण का निर्माण किया है। ये वही पत्रिका है, जिसने कभी मोदी क्यों महत्वपूर्ण हैं और मोदी का मतलब काम- जैसे शीर्षकों के साथ कवर स्टोरी बनाई थी। लेकिन अब उसकी कवर स्टोरी का शीर्षक है- मोदी: डिवाइडर इन चीफ।

पिछले हफ्ते ब्रिटिश पत्रिका ‘द इकॉनोमिस्ट’ ने अपने संपादकीय में मोदी को लोक तंत्र के लिए खतरा बताया था। पत्रिका ने भारतीय मतदाताओं से अपील की थी कि वे भले कमजोर गठबंधन सरकार बनाएं, लेकिन मोदी को समर्थन ना दें। अब टाइम पत्रिका ने लिखा है कि मोदी 2014 में किए गए अपने वादों का पूरा करने में सफल नहीं हुए हैं। उनका ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा विडंबना साबित हुआ है। पत्रिका लिखती है कि मोदी सरकार के कार्यकाल में बुनियादी कानूनों का ढांचा इस कदर दूषित हुआ है कि अब खुद सरकार के लिए सांप्रदायिक हिंसा को नियंत्रित करना संभव नहीं रह गया है। तो टाइम ने उस सिलसिले को आगे बढ़ाया है जिसके तहत तमाम वैश्कि मीडिया संस्थानों ने मोदी सरकार के कार्यकाल को निराशाजनक बताते हुए उसकी विभाजनकारी नीतियों के प्रति आगाह किया है। पत्रिका ने लिखा है कि आर्थिक मुद्दों से लेकर सामाजिक और राजनीतिक हलकों तक में मोदी का कार्यकाल भारत के लिए कि सी आपदा की तरह रहा है।

पत्रिका का स्वर नरेंद्र मोदी सरकार के दौरान अल्पसंगयक समुदायों पर हुए हमले के प्रति ख़ासा तल्ख़ है। इस तरह की हर घटना के प्रति सरकार की प्रतिक्रिया एक जैसी ही रही है। उसने ऐसी हर घटना के बाद चुप्पी धारण कर ली है। बेंगलुरु साउथ संसदीय सीट से चुनाव लडऩे वाले तेजस्वी सूर्या के बयान का जिक्र करते हुए पत्रिका लिखती है कि ऐसे युवा चेहरे ही प्रधानमंत्री की बहुसंख्यक वाद की नीतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। तेजस्वी सूर्या ने अपने प्रचार के दौरान खुलेआम कहा कि अगर आप मोदी के साथ नहीं हैं, तो आप राष्ट्र-विरोधी तत्वों के साथ हैं। पत्रिका ने आर्थिक मोर्चों पर मोदी सरकार की विफलता और संवैधानिक संस्थानों के अपने निहित राजनीतिक एजेंडे के लिए इस्तेमाल पर भी सवाल उठाए हैं। तो अब ये साफ है कि दुनिया आज मोदी के नेतृत्व को किस नजर से देख रही है? लेकिन अहम सवाल ये है कि क्या भारत के बारे में विदेशी पत्रिकाएं तय करेंगी कि देश को किधर जाना है?

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