अफगानिस्तान में आशा की किरण

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Taliban fighters pose with weapons in an undisclosed location in Nangarhar province in this December 13, 2010 picture. REUTERS/Stringer (AFGHANISTAN - Tags: CIVIL UNREST IMAGES OF THE DAY) - GM1E6CE1CVA01

इसी वर्ष के मार्च और मई में मैंने लिखा था कि कतर की राजधानी दोहा में तालिबान और अफगान-सरकार के बीच जो बातचीत चल रही है, उसमें भारत की भी कुछ न कुछ भूमिका जरुरी है। मुझे खुशी है कि अब जबकि दोहा में इस बातचीत के अंतिम दौर का उदघाटन हुआ है तो उसमें भारत के विदेश मंत्री ने भी वीडियो पर भाग लिया। उस बातचीत के दौरान हमारे विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव जे.पी. सिंग दोहा में उपस्थित रहेंगे। जे.पी. सिंग अफगानिस्तान और पाकिस्तान, इन दोनों देशों के भारतीय दूतावास में काम कर चुके हैं। वे जब जूनियर डिप्लोमेट थे, वे दोनों देशों के कई नेताओं से मेरे साथ मिल चुके हैं। इस वार्तालाप के शुरु में अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपिओ ने भी काफी समझदारी का भाषण दिया। पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने भी जो कुछ कहा, उससे यही अंदाज लगता है कि तालिबान और काबुल सरकार इस बार कोई न कोई ठोस समझौता जरुर करेंगे।

इस समझौते का श्रेय जलमई खलीलजाद को मिलेगा। जलमई नूरजई पठान हैं और हेरात में उनका जन्म हुआ था। वे मुझे 30-32 साल पहले कोलंबिया यूनिवर्सिटी में मिले थे। वे काबुल में अमेरिकी राजदूत रहे और भारत भी आते रहे हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि अमेरिकी नागरिक के तौर पर वे अमेरिकी हितों की रक्षा अवश्य करेंगे। लेकिन वे यह नहीं भूलेंगे कि वे पठान हैं और उनकी मातृभूमि तो अफगानिस्तान ही है। दोहा-वार्ता में अफगान-प्रतिनिधि मंडल का नेतृत्व डाॅ. अब्दुल्ला अब्दुल्ला कर रहे हैं, जो कि अफगानिस्तान के विदेश मंत्री और प्रधानमंत्री रह चुके हैं। उनका परिवार वर्षों से दिल्ली में ही रहता है। वे भारतप्रेमी और मेरे मित्र हैं। इस दोहा-वार्ता में भारत का रवैया बिल्कुल सही और निष्पक्ष है। बजाय इसके कि वह किसी एक पक्ष के साथ रहता, उसने कहा कि अफगानिस्तान में भारत ऐसा समाधान चाहता है, जो अफगानों को पूर्णरुपेण स्वीकार हो और उन पर थोपा न जाए। लगभग यही बात माइक पोंपियों और शाह महमूद कुरैशी ने भी कही है। अब देखना यह है कि यह समझौता कैसे होता है? क्या कुछ समय के लिए तालिबान और अशरफ गनी की काबुल सरकार मिलकर कोई संयुक्त मंत्रिमंडल बनाएंगे ? या नए सिरे से चुनाव होंगे ? या तालिबान सीधे ही सत्तारुढ़ होना चाहेंगे याने वे गनी सरकार की जगह लेना चाहेंगे ? इसमें शक नहीं कि तालिबान का रवैया इधर काफी बदला है। उन्होंने काबुल सरकार के प्रतिनिधि मंडल में चार महिला प्रतिनिधियों को आने दिया है और कश्मीर के मसले को उन्होंने इधर भारत का आंतरिक मामला भी बताया है। यदि तालिबान थोड़ा तर्कसंगत और व्यावहारिक रुख अपनाएं तो पिछले लगभग पचास साल से उखड़ा हुआ अफगानिस्तान फिर से पटरी पर आ सकती है।

(लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं )

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