अपराध जगत में भी इंश्योरेंस योजना?

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पुरानी खबर का ताजा पुष्टिकरण यह है कि दाऊद इब्राहिम कराची में रहता है। पाकिस्तान की दलील है कि दाऊद ने उनके यहां कोई अपराध नहीं किया है, अत: उस पर कार्रवाई नहीं की गई। दाऊद के जीवन पर कुछ फिल्में बनी हैं। फिल्म ‘वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई’ में युवा दाऊद हाजी मस्तान के लिए काम करता है। ज्ञातव्य है कि मस्तान मधुबाला को चाहते थे व मधुबाला से कुछ साम्य के कारण सोना नामक अभिनेत्री से इश्क करते थे। सोना छोटी भूमिकाएं अभिनीत करती थीं। फिल्म में सोना की भूमिका कंगना रनौत ने की थी। अजय देवगन हाजी मस्तान की भूमिका में प्रभाव पैदा करते हैं। दाऊद के पिता कासकर मुंबई पुलिस में ईमानदार कान्सटेबल थे। दाऊद का कहना था कि बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद उसने 1993 में बस विस्फोट किए थे। आरडीएक्स समंदर के रास्ते पाकिस्तान से भारत लाया गया था। भारतीय कस्टम अधिकारी ने रिश्वत लेकर यह अवैध काम होने दिया। दाऊद के नौसिखियों ने आरडीएक्स को उल्टी दिशा में रखा, जिस ब्लास्ट में धरती के भीतर काफी नुकसान हुआ, अन्यथा इस निंदनीय हमले में ज्यादा नुकसान हो सकता था। शेयर बाजार में एक स्कूटर में बम रखा गया था। हादसे के दूसरे दिन बच्चे स्कूल गए, दफ्तरों में काम किया गया। यह कर्तव्य परायणता मुंबई द्वारा दिया गया जवाब था कि आतंकवाद हमें हिला नहीं पाता।

इसीलिए कहते हैं कि मुंबई कभी सोता-थकता नहीं है। यहां प्रतिदिन 30 लाख लोग अन्य शहरों से आकर मुंबई में काम करके अपने गृह नगर लौटते हैं। सारे कॉरपोरेट संसार के मुख्यालय मुंबई में ही स्थित हैं। अमेरिका के एक दस्ते ने पाकिस्तान में छुपे ओसामा बिन लादेन को वहां जाकर मारा था। क्या ऐसे ही भारत के लोग दाऊद को मार नहीं पाए? हमें दावे गरजने का शौक है। हम अपनी ही आवाज पर मोहित हैं। पाकिस्तान की शायर फ़हमीदा रियाज़ की पंक्तियां हैं- ‘तुम बिल्कुल हम जैसे निकले, अब तक कहां छुपे थे भाई, वो मूरखता वो घामड़-पन जिसमें हमने सदी गंवाई, आख़िर पहुंची द्वार तम्हारे अरे बधाई बहुत बधाई।’ दाऊद की बहन हसीना पारकर के जीवन से प्रेरित फिल्म बनी है। अदालत से वह निर्दोष बरी हुई थी। दाऊद और हाजी मस्तान जैसे व्यक्तियों के रिश्तेदार हमेशा शक के दायरे में रहते हैं। ‘मुल्क’ फिल्म में यही प्रस्तुत किया गया है। अपराध वंशानुगत नहीं होता। दाऊद के पिता हवलदार कासकर बाइज्जत रहे और पेन्शन भी पाई। राम गोपाल वर्मा की फिल्म ‘सरकार’ बाला साहेब ठाकरे से इजाजत लेकर बनाई गई थी। अमिताभ ने दमदार अभिनय किया था। बाला साहेब ठाकरे के अनगिनत प्रशंसक रहे, परंतु उनके अपने चुने हुए काम में विश्वासघात का भय हमेशा बना रहता है। अत: निरंतर डरते हुए भी साहसी दिखने का अभिनय आसान नहीं होता।

यह बताना कठिन है कि उम्रदराज दाऊद के रईसी रहन-सहन के लिए धन कहां से आता है? क्या पाक सरकार से उन्हें धन मिलता है? कोरोना से क्रिकेट स्थगित रहा। अत: सट्‌टे से धन नहीं आता। क्या अपराधी अपने बुढ़ापे के लिए धन आरक्षित रखते हैं? क्या अपराध जगत में कोई इंश्योरेंस योजना होती है? यह भी एक संभावना है कि दाऊद नाम के हव्वे को बनाए रखा है और वह किसी अस्पताल में इलाज करा रहा है। क्या दाऊद को कभी पश्चाताप होता था? उसके पिता कासकर के वंश का क्या हुआ। यह माना जाता है कि ऐसे अपराधी राजनैतिक संरक्षण पाते हैं। बिना सांठ-गांठ के दाऊद जैसों का सक्रिय रहना संभव नहीं है। दाऊद के पास कई नकली पासपोर्ट हैं, परंतु हर पासपोर्ट में पिता का नाम कासकर ही है। ज्ञातव्य है कि कासकर ने अपने पुत्र का विरोध किया था व उसे दंडित करवाने के प्रयास भी किए थे। खबर है कि आईपीएल क्रिकेट तमाशा दुबई में हो रहा है। दाऊद को क्रिकेट देखना पसंद है। अत:निकट भविष्य में दाऊद देखा जा सकता है। क्या हमारा गुप्तचर संगठन उसकी गिरफ्तारी या एनकाउंटर प्रायोजित करेगा? विषम परिस्थितियों में खुश रहना कठिन जीवन काल्पनिक कथाओं से अधिक रोचक है। टीवी पर ‘भाबी जी घर पर हैं’ लंबे समय से प्रसारित हो रहा है।

निर्देशक शशांक बाली, निर्माता कोहली दंपति और लेखकों की टीम इतनी सशत है कि कुछ कलाकारों के काम छोडऩे के बाद भी विकल्प खोज लेते हैं। मसलन भाबी जी शिल्पा शिंदे ने काम छोड़ा, तो विकल्प खोजा गया और परिवर्तन पर प्रश्न नहीं उठा। अब सौम्या टंडन भी बिदाई ले रही हैं। विदेशों में भी कलाकार काम छोड़ देते हैं, परंतु पर्याय मिल जाते हैं। दरअसल दर्शक अपनी इच्छा से अपने अविश्वास की भावना को स्थगित कर देता है व यह परिवर्तन कोई हानि नहीं पहुंचा पाता। राजनीति क्षेत्र के नट सम्राट भी मतदाता को अपने तर्क से खारिज करना जानते हैं। नेताओं के पास सामूहिक सम्मोहन क्षमता है। भाबी जी के पगलेट ससेना का असली नाम सानंद वर्मा है। पहले वे कॉरपोरेट संस्था में ऊंचे पद पर थे और सफल भी थे, परंतु उन्हें एक अज्ञात बेचैनी तंग करती थी। उनके अवचेतन में अभिनेता कुलबुला रहा था, उनके साथी ने उनका परिचय शशांक बाली से कराया और वे ‘भाबी जी’ सीरियल में आए। यहां यह पात्र पिटने पर खुश होता है। बिजली के शॉक उसे उलझा देते हैं, मानो वह बिजली से चलने वाला खिलौना हो।

स्पष्ट है कि आम आदमी व्यवस्था द्वारा प्रताडि़त होने पर खुश होता है। लेखक-निर्देशक तत्कालीन समस्याओं के प्रति जागरुक हैं और अपने ढंग से निर्मम व्यवस्था की आलोचना भी करते हैं। मसलन एक एपिसोड में बीएसटी कर लगाने का प्रसंग है कि लोगों को बातचीत पर टैस चुकाना होगा। खामोशी कर मुक्त है। ज्ञातव्य है कि संजीव कुमार ने ‘खिलौना’ फिल्म में केमिकल लोचा से पीडि़त का पात्र निभाया। उसकी शादी धन देकर एक तवायफ से कराई जाती है। कोई एक सामान्य स्त्री तो उससे विवाह नहीं करती। विवाह के बाद वे सामान्य होने लगता है। परिवार के लिए किराए पर ली गई स्त्री को परिवार का सदस्य मान लेना स्वीकार नहीं है। गुलशन नंदा के उपन्यास को ‘खिलौना’ का आधार बनाया गया। रमेश तलवार की फिल्म ‘बसेरा’ में राखी व शशि कपूर विवाहित हैं। पर राखी केमिकल लोचा से पीडि़त हो जाती हैं। उसे पागलखाने भेजा जाता है। राखी की छोटी बहन रेखा, शशि कपूर का घर संभालने आती है। समय बीतने पर शशि कपूर व रेखा अभिनीत पात्रों का विवाह होता है। सभी चीजें सही चल रही थीं, तभी पागलखाने से ठीक होकर राखी घर लौटती है। शीघ्र ही उसे समझ आता है कि अब घर में उसकी जरूरत नहीं है।

अत: वह पागलपन का अभिनय करते हुए पुन: पागलखाने लौट जाती है। कुछ इसी तरह सलमान खान अभिनीत फिल्म ‘तेरे नाम’ में भी होता है। नायक समझ लेता है कि परिवार के गोल छेद वाली मेज पर उस जैसा तिकोना फिट नहीं होगा, तो वह लौट जाता है। सुविधाओं द्वारा यह तय किया गया है कि सामान्य या है। बहुमत ने यह तय किया है। केमिकल लोचे से पीडि़त व्यक्ति के दृष्टिकोण से देखें तो सामान्य लोगों का संसार एक पागलखाना है। कुछ समय बाद यूरोप लौटने पर उनसे पूछा गया कि पागलखाने के अनुभव कैसे रहे? उन्होंने कहा कि ‘अमेरिका ही पागलखाना है।’ वर्तमान के प्रेसीडेंट, यूरोप के कवि की धारणा की पुष्टि करते हैं। वहीदा रहमान अभिनीत ‘ख़ामोशी’ में अपने सद्व्यवहार से पागलों को सामान्य बनाने वाली नर्स अभिनय करते-करते खुद ही पागल हो जाती है। ‘भाबी जी घर पर हैं’, सीरियल के पात्र और तकनीशियन ने मिलकर एक कार्यक्रम रचा है। दर्शक खुश हो रहे हैं, गोया कि अपरोक्ष रूप से यह कार्यक्रम मनुष्य की सेवा कर रहा है। आज की विषम परिस्थितियों में खुश होना कितना कठिन है। पगलैट ससेना हमें इसी औंधी दुनिया को सीधा देखने में सहायता कर रहा है।

जयप्रकाश चौकसे
(लेखक वरिष्ठ फिल्म समीक्षक हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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