जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के छात्र फिर आंदोलित हैं। इस बार उनका मुद्दा फीस बढ़ोतरी का है। इससे पहले पिछले पांच साल में सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनको आंदोलन करने के अनगिनत मौके मुहैया कराएं हैं। और हर आंदोलन के साथ अपढ़-कुपढ़ मीडिया और उससे भी गए गुजरे सोशल मीडिया के जरिए यह प्रचारित और समय के साथ स्थापित किया गया है कि जेएनयू में पढ़ाई नहीं होती है। यह धारणा बनवाई गई है कि वह ‘अरबन नक्सलियों’ का अड्डा है, जहां से ‘देश विरोधी’ गतिविधियां चलती हैं। आम लोगों को यह समझाया गया है कि वहां के छात्र बूढ़े हो जाने तक पढ़ते ही रहते हैं क्योंकि वहां छात्रावास, मेस, ट्यूशन फीस आदि बहुत कम हैं। पहली नजर में देखने से ऐसा लग रहा है जैसे यह सब कुछ सिर्फ जेएनयू के साथ हो रहा है और सिर्फ इसलिए हो रहा है कि उसके नाम में जवाहर लाल नेहरू का नाम है। पर असल में यह देश के सारे उच्च शिक्षण संस्थानों के साथ हो रहा है। यह उच्च शिक्षा विरोधी माहौल बनाने के प्रयासों का हिस्सा है। यह सबको सस्ती और अच्छी शिक्षा मिले, इस सिद्धांत को खत्म करने के प्रयासों का हिस्सा है। यह सार्वजनिक विश्वविद्यालयों की बुनियादी अवधारणा को ही मिटा डालने के प्रयासों का हिस्सा है। ऐसा लग रहा है कि सरकार में बैठे लोग यह चाहते हैं कि सार्वजनिक शिक्षण संस्थानों में सिर्फ वहीं तक पढ़ाई हो, जहां तक के बाद छात्र को नौकरी मिल सके। सरकार स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों को फैक्टरियों-कंपनियों में शिक्षित और प्रशिक्षित मजदूर पहुंचाने वाली सप्लाई लाइन बनाना चाहती है।
यह धारणा बनवाई जा रही है कि उच्च शिक्षा हासिल करना, शोध करना या ऐसे विषयों के बारे में पढ़ना, जिससे तत्काल रोजगार नहीं मिल सकता हो, समय और पैसे की बरबादी है। अगर कोई छात्र एमए, एमफील और उसके बाद पीएचडी कर रहा है तो उसका मजाक बनाया जा रहा है। उसे सरकार के पैसे पर ऐश करने वाला ठहराया जा रहा है। अगर कोई छात्र फाइन आर्ट या लिबरल आर्ट की पढ़ाई कर रहा है या रूसी भाषा सीख रहा है या भाषाओं के इतिहास का अध्ययन कर रहा है तो उसको सरकारी धन की बरबादी करने वाला बताया जा रहा है। हैरानी की बात है कि यह बात निजी विश्वविद्यालयों में शोध करने वालों के लिए नहीं कही जाती है क्योंकि वे अपने पैसे से यह काम कर रहे होते हैं।
इससे ही इस पूरी साजिश पर से परदा हटता है। पता चलता है कि कैसे सरकारों ने अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा मुहैया कराने के अपने बुनियादी कर्तव्य से हाथ खींच लिए, जिससे नर्सरी से लेकर पीएचडी तक कराने वाले लाखों निजी शिक्षण संस्थान खड़े हो गए। रिलायंस से लेकर जिंदल तक आज अगर शिक्षा के क्षेत्र में आएं हैं तो सिर्फ इसलिए कि सरकार के शिक्षा विरोधी रुख की वजह से उनके लिए मौका बना है। हैरानी है कि प्रधानमंत्री आए दिन कहते हैं कि शोध होने चाहिए, छात्रों को नवाचार व नवोन्मेष के लिए प्रेरित करना चाहिए, उन्हें पेटेंट कराने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए पर दूसरी ओर सरकार उच्च शिक्षा पर होने वाले खर्च का रोना रोती है। यह भी एक तथ्य है, एक तरफ जेएनयू की सस्ती फीस का रोना रोया जा रहा है और दूसरी ओर शोध के लिए आवंटित फंड का पूरा इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है। इसका मतलब है कि सरकार के पास पैसे की कमी नहीं है, बल्कि नियत में खोट है। जेएनयू में फीस बढ़ोतरी के पक्ष में एक अजीब सा तर्क यह दिया जा रहा है कि करदाताओं के पैसे पर क्यों वहां के छात्र बूढ़े हो जाने तक पढ़ते रहेंगे! यह बड़ी सुविधा का तर्क है, जो कभी किसानों की कर्ज माफी के विरोध में दिया जाता है, कभी गरीबों को सस्ते राशन देने के विरोध में दिया जाता है, कभी सांसदों-विधायकों को मिलने वाली सुविधाओं के विरोध में दिया जाता है तो कभी उच्च शिक्षा के विरोध में दिया जाता है। चूंकि इस समय सरकार चाहती है कि यह तर्क उच्च शिक्षा के विरोध में दिया जाए तो उसके समर्थक, जिसमें मीडिया भी शामिल है, उसके विरोध में यह तर्क दे रहे हैं। पर कर देने वाले यह नहीं समझते कि उनके पास कर नहीं देने का विकल्प नहीं है। कर देना उनकी मजबूरी है, यह कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं है। दूसरे, पूरा देश ही करदाता है। सरकार हर महीने करीब एक लाख करोड़ रुपए जीएसटी वसूलती है, पांच हजार करोड़ रुपए के घर में रहने वाले और पांच हजार रुपए महीना कमाने वाले दोनों को यह कर समान दर से देना होता है। यानी 130 करोड़ लोग इसके दायरे में आते हैं। इसलिए करदाता होने के नाम पर उच्च शिक्षा के लिए होने वाले खर्च का विरोध एक किस्म की अश्लीलता है और बेहूदगी है।
यह सही है कि भारत के विश्वविद्यालयों में नए शोध बहुत कम हुए हैं, नोबल जीतने वाले गिने-चुने लोग निकले हैं, पेटेंट कराने वाले भी कम हैं पर यह पढ़ाई के तौर तरीकों की गलती है। उच्च शिक्षण संस्थानों को बंद कर देने से इसका समाधान नहीं होना है। इसके लिए सरकार को उच्च शिक्षा को प्रोत्साहित करना चाहिए, इस पर खर्च बढ़ाना चाहिए। आज अमेरिका दुनिया का नेता है तो उसमें इस बात का भी योगदान है कि वह शोध पर सबसे ज्यादा खर्च करता है और हर साल नोबल जीतने वालों में आधे से ज्यादा उसके यहां की यूनिवर्सिटी में शोध करने वाले होते हैं। उम्र के आधार पर जेएनयू के छात्रों का विरोध करने वालों को यह समझना चाहिए कि 22 साल की उम्र में किसी फैक्टरी की असेंबली लाइन में नौकरी पर लग जाने वाले और 60 साल तक शोध करके कैंसर की दवा खोज देने वाले की तुलना नहीं हो सकती। शोध एक तरह की तपस्या है, साधना है, जिसे पैसे या उम्र की कसौटी पर कसना मूर्खता है।
अजीत द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं