अदालत का खुद पर जुर्माना लगाना नायाब फैसला

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शायद यह दुनिया का पहला मुकदमा है, जिसमें अदालत ने खुद पर ही जुर्माना ठोक दिया है। यह मामला कोलकाता उच्च न्यायालय का है। 2007 में सियालदह के रेल्वे मजिस्ट्रेट ने एक रेल इंजिन ड्राइवर और गार्ड को घेर लिया, यह पूछने के लिए कि यह ट्रेन रोज ही 15 मिनिट देर से क्यों आती है। इस पर सैकड़ों रेल-कर्मचारियों ने जज के साथ धक्का-मुक्की की, नारे लगाए और धमकियां दीं।

जज मिंटू मलिक ने ड्राइवर और गार्ड को रेल्वे अदालत में पेश होने के लिए बुलाया। इस पर जज को ही अनुशासनहीनता का आरोप लगाकर बर्खास्त कर दिया गया। उन्हें जबरन सेवा-निवृत्त कर दिया गया। उनसे पूछा गया था कि वे जज होकर भी एंजिन के ड्राइवर के केबिन में घुसकर उसे क्यों धमका रहे थे ? मजिस्ट्रेट मलिक ने कहा कि वह रेल रोज ही 15 मिनिट देर से आती थी, क्योंकि उसे पहले किसी स्टेशन पर रोज इसलिए रोका जाता था कि उसमें से तस्करी का कुछ सामान उतार लिया जाता था और नकली और नकली और सस्ते खाद्य-पदार्थ लाद दिए जाते थे ताकि रेल्वे अधिकारी और ठेकेदार नाजायज मुनाफा कमा सकें।

मलिक की बात नहीं सुनी गई। मलिक ने अपना मामला उच्च न्यायालय में दायर कर दिया। 12 साल बाद उसका फैसला आया। अदालत ने मलिक को दुबारा अपने पद पर नियुक्ति का आदेश दिया और अपने पर ही जुर्माना लगाते हुए मलिक को एक लाख रु. का हर्जाना देने की घोषणा की। उच्च न्यायालय का कहना था कि मजिस्ट्रेट मिंटू मलिक ड्राइवर के केबिन में घुस गए और उन्होंने ड्राइवर और गार्ड को डांट लगाई, यह बात उनके अति उत्साहित होने का सूचक जरुर है लेकिन उन्होंने क्या ऐसा अपने स्वार्थ के लिए किया था ?

देश के ज्यादातर जिम्मेदार लोग ऐसे मामलों की उपेक्षा कर देते हैं और सोचते हैं कि हम फिजूल सिरदर्द मोल क्यों लें ? मिंटू मलिक ने हस्तक्षेप करके वास्तव में एक जागरुक नागरिक का दायित्व निभाया है। इसीलिए कलकत्ता उच्च न्यायालय ने उन्हें एक लाख रु. का इनाम दिया है। मैं उसे हर्जाना नहीं, इनाम कहता हूं। मिंटू मलिक जैसे कर्तव्यनिष्ठ अधिकारियों को सरकार द्वारा भी सम्मानित किया जाना चाहिए। कलकत्ता उच्च न्यायालय के जज संजीव बेनर्जी और सुर्वा घोष भी सराहना के पात्र हैं।

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं…

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