अच्छा हुआ जो सीएम नहीं बने तेजस्वी!

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सबसे कम उम्र का मुख्यमंत्री बनने का रिकार्ड बनाने की उम्मीद लगाए तेजस्वी यादव को यह बात सुनने में अच्छी नहीं लगेगी, कि कोई उनसे कहे कि अच्छा हुआ जो वे सीएम नहीं बने। जीत तो वे गए हैं, अगर सीएम बन जाते तो 33 साल की उम्र में असम का मुख्यमंत्री बने प्रफुल्ल कुमार महंत का रिकार्ड तोड़ देते परंतु उसी समय उनके महंत की गति को प्राप्त होने की इबारत भी लिख दी जाती। अंततः उनकी राजनीति और वे खुद भी उसी गति को प्राप्त होते, जिस गति को असम गण परिषद और प्रफुल्ल कुमार महंत प्राप्त हुए हैं। फिर बिहार की भी असम जैसी ही गति होती। सो, अच्छा हुआ कि तेजस्वी इस बार जीत कर मुख्यमंत्री नहीं बने, बल्कि मुख्यमंत्री बनने के करीब पहुंच कर रह गए।

इससे ऐसा लग रहा है जैसे अरविंद केजरीवाल का इतिहास अपने को दोहरा रहा है। केजरीवाल भी इसी तरह 2013 में मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंच गए थे। उन्होंने तो कांग्रेस की मदद लेकर सरकार बना ली थी। परंतु 49 दिन की उनकी सरकार कैसे चली और उन्होंने क्या-क्या भुगता और फिर उसके बाद एक साल तक वे कैसे भटकते रहे थे, यह सब इतिहास में दर्ज है। तेजस्वी उन सबसे बच गए हैं। वे प्रचार में कहते थे कि बिहार के लोग केजरीवाल की तरह क्लीन स्लेट चाहते हैं। सो, जब वे अगली बार फिर चुनाव में जाएंगे तो क्लीन स्लेट की तरह ही जाएंगे। वह चुनाव ऐतिहासिक होगा, वैसे ही जैसे 2015 का दिल्ली का चुनाव ऐतिहासिक हुआ था। अगले चुनाव के समय भी तेजस्वी की उम्र 36 साल ही हुई रहेगी। सो, उनको यह अफसोस दिल-दिमाग से निकाल देना होगा कि वे सबसे युवा मुख्यमंत्री नहीं बन सके। उन्हें सबसे युवा मुख्यमंत्री नहीं बनना है उन्हें बिहार की किस्मत बदलने वाला मुख्यमंत्री बनना है। ऐसा मुख्यमंत्री, जो देश की सर्वाधिक युवा आबादी वाले बिहार को ‘सामाजिक न्याय’ और ‘सुशासन’ की राजनीति से आगे ले जाएगा!

जिस तरह से तेजस्वी के पिता लालू प्रसाद यादव या उनके ‘चाचा’ नीतीश कुमार ने अमूर्त चीजों की राजनीति की है वैसे उन्हें नहीं करनी है। उन्हें ठोस और मूर्त चीजों की राजनीति करनी है। उन्होंने वादा भी 10 लाख नौकरियां देने का किया था। उन्होंने ऐसी चीज का वादा किया था, जिसे गिना जा सकता है। उन्होंने ‘सामाजिक न्याय’ जैसी किसी अमूर्त सी चीज की बात नहीं कही थी या ‘अच्छे दिन’ लाने का अमूर्त सा वादा नहीं किया, जिसे न देखा जा सकता हो, न गिना जा सकता हो। जिन्होंने ‘अच्छे दिन’ लाने का वादा किया था वे कह रहे हैं कि ‘अच्छे दिन’ आ गए। अब आप के पास इस दावे को स्वीकार करने के अलावा क्या रास्ता बचता है! अगर तेजस्वी ने भी ऐसा कोई वादा किया होता तब तो ठीक था कि वे मुख्यमंत्री बन जाते और अपने उस अमूर्त से वादे को सारी जिंदगी पूरा करते रहते। लेकिन उन्होंने ठोस वादा किया था और अभी उसे पूरा करना नामुमकिन की हद तक मुश्किल था। सत्ता की निरतंरता में तो चीजें रूटीन में चलती रह सकती हैं लेकिन अगर सत्ता परिवर्तन होता तो हालात बेकाबू होते- कोरोना के भी, अर्थव्यवस्था के भी और राज्य सरकार के राजस्व के मोर्चे पर भी।

नई सरकार के सामने कोरोना, अर्थव्यवस्था और राजस्व तीनों बड़ी चुनौती हैं। इसमें किसी को संदेह नहीं है कि चुनाव की वजह से बिहार में कोरोना वायरस के केसेज दबाए गए हैं। त्योहार खास कर छठ बीतने के बाद अचानक कोरोना का विस्फोट हो सकता है, जिसे संभालना आसान नहीं होगा। नीतीश कुमार ने शराबबंदी करके बिहार में राजस्व का एक बड़ा स्रोत बंद कर रखा है, जिसे चालू करने का फैसला भी तेजस्वी के लिए आसान नहीं होता। ऊपर से देश की अर्थव्यवस्था ऐसी बरबाद हुई पड़ी है कि केंद्र सरकार जीएसटी का मुआवजा राज्यों को चुकाने की स्थिति में नहीं है। ऐसे आर्थिक हालात में मुख्यमंत्री बन कर तेजस्वी क्या कर लेते? एक, अणे मार्ग में तो वे बैठ जाते परंतु करोना महामारी और बरबाद आर्थिकी का ठीकरा भी उनके सर फूटता। सबकी नजर 10 लाख रोजगार पर रहती, जो दे पाना लगभग नामुमकिन होता। इसलिए अच्छा हुआ जो एनडीए की ही फिर से सरकार बन रही है। कोरोना से लेकर अर्थव्यवस्था और रोजगार व राजस्व के मामले में जो मुश्किलें इस सरकार ने पैदा की हैं उसे ठीक करने की जिम्मेदारी उनकी ही रहेगी।

अगर वे ठीक करते हैं तो इसका श्रेय भी तेजस्वी को जाएगा, जिन्होंने बिहार में मुद्दा आधारित राजनीति को ठोस जमीन दी है और अगर सरकार इन मोर्चों पर फेल होती है या यथास्थिति बनी रहती है तब भी फायदा तेजस्वी को होगा क्योंकि फिर लोग पहले दिन से उनको याद करने लगेंगे। तब उनके लिए अपने आप बड़ा और ऐतिहासिक मौका बनेगा। उन्होंने राजनीति की एक ऐसी लकीर खींच दी है, जिसके सामने उससे बड़ी लकीर खींचना फिलहाल संभव नहीं लग रहा है। ऐसा नहीं है कि नीतीश कुमार में वह क्षमता नहीं है, लेकिन अब वे उस स्थिति को पार कर चुके हैं, जहां उनको कुछ साबित करना है। अब वे सिर्फ मुख्यमंत्री बने रहने के लिए बनेंगे। और अगर अगले पांच साल के दौरान किसी समय भाजपा का मुख्यमंत्री बनता है तो वह सिर्फ अपनी पार्टी को मजबूत करने, संगठन को मजबूत करने, लंबे समय का वोट आधार बनाने और भाजपा के सीएम के सीधे शासन से अब तक बचे रहे एकमात्र हिंदी प्रदेश बिहार में सत्ता की मौज लेने के लिए बनेगा।

सो, अगले पांच साल बिहार का मुख्यमंत्री चाहे कोई भी रहे उसे तेजस्वी के तय किए एजेंडे के साए में शासन चलाना है। उसके सामने हमेशा तेजस्वी की खींची बड़ी लकीर मौजूद रहेगी। लोग भी दिन-प्रतिदिन के शासन में इसे देखते रहेंगे और पांच साल तक तुलना चलती रहेगी। तेजस्वी को अगले पांच साल का समय इसलिए भी मिला है ताकि वे अपने सामाजिक समीकरण को थोड़ा और बड़ा कर सकें। इस बार वे यह काम करने में आंशिक रूप से ही सफल हो सके हैं।

तेजस्वी पिछली विधानसभा में भी नेता प्रतिपक्ष थे, लेकिन वह कुर्सी उन्हें अपने पिता से उपहार में मिली थी। इस बार उन्होंने खुद की मेहनत से नेता प्रतिपक्ष का दर्जा हासिल किया है। अब उन्हें वास्तव में नेता प्रतिपक्ष बन कर दिखाना है। उन्हें उतने ही लोगों ने वोट दिया है, जितने लोगों ने नीतीश कुमार को दिया है। उन्हें ध्यान रखना होगा कि जनता सिर्फ सरकार नहीं चुनती है, वह विपक्ष भी चुनती है और जनता ने राजद के रूप में मजबूत विपक्ष चुना है। सो, तेजस्वी को उनकी उम्मीदों पर खरा उतरना है। उनको 12 करोड़ बिहारियों की आवाज बनना है। वे एक बार नेता विपक्ष की प्रभावी भूमिका निभा कर दिखाएं फिर देखें बिहार के लोग उनके लिए क्या करते हैं। उन्हीं के प्रदेश के महान कवि रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा था- सेनानी करो प्रयाण अभय भावी इतिहास तुम्हारा है, ये नखत अमा के बुझते हैं सारा आकाश तुम्हारा है।

अजीत दि्वेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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