राजधानी दिल्ली में वायु प्रदूषण को लेकर जिस तरह के इमरजेंसी से बुरे बालात बने हुए हैं, धरती-आसमान एक करते हुए किसानों के माथे पर इसका दोष मढऩे के प्रयास हो रहे हैं, समस्या की जड़ को पकडऩे की बजाय इस तरह के अतिश्योक्ति पूर्ण आरोपों को किसी भी रूप में तर्क पूर्ण नहीं कहा जा सकता। सबसे दुखद यह है कि प्रदूषण जैसे मुद्दे को भी राजनीतिक रंग दे दिया गया है और इसी पर वोटों की राजनीतिक लाभ की रोटियां सेंकने की कोशिशें की जा रही हैं। असल में देखें तो संकट वायु प्रदूषण का हो या जंगल का, स्वच्छ वायु का हो या फिर स्वच्छ जल का, सभी के मूल में विकास क वह अवधारणा है जिससे शहर रूपी सुरसा सतत विस्तार कर रही है और उसकी चपेट में आ रही है प्रकृति और उसकी नैसर्गिकता। जिसके कारण मनुष्य की सांसें उलझती जा रही हैं, जीवन पर संकट मंडरा रहा है। अगर हमें पूरी समस्या से लडऩा है, तो राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सहित महानगरों के स्तर पर और साथ ही पूरे देश के स्तर पर अपनी कई आदतों को बदलना होगा, विकास के तथाकथित मॉडल पर गंभीर चिन्तन करना होगा।
वायु प्रदूषण का कारण पराली एवं सडक़ पर दौड़ते निजी वाहनों में खोजने की बजाय हमें महानगरों के अनियोजित शहरीकरण में खोजना होगा। असल में शहरीकरण के कारण पर्यावरण एवं प्रकृति को हो रहे नुकसान का मूल कारण अनियोजित शहरीकरण है। बीते दो दशकों के दौरान यह प्रवृत्ति पूरे देश में बढ़ी है। लोगों ने दिल्ली एवं ऐसे ही महानगरों की सीमा से सटे खेतों पर अवैध कोलोनियां काट लीं। इसके बाद जहां कहीं सडक़ बनीं, उसके आसपास के खेत, जंगल, तालाब को वैध या अवैध तरीके से कंक्रीट के जंगल में बदल दिया गया। देश के अधिकांश उभरते शहर अब सडक़ों के दोनों ओर बेतरतीब बढ़ते जा रहे हैं। न तो वहां सार्वजनिक परिवहन है, न ही सुरक्षा, न ही बिजली-पानी की न्यूनतम व्यवस्था। यह विडम्बना ही है कि खेती की जमीनों का अधिग्रहण कर-करके बड़े शहर आबाद किये जाते हैं और इनके आबाद हो जाने के बाद उसे ही असंख्य कह कर दुत्कार दिया जाता है। राजधानी दिल्ली के विस्तार की गाथा इसके बीच बसे हुए गांव ही बिन कहे सुनाते रहते हैं।
दरअसल स्वतन्त्र भारत के विकास के लिए हमने जिन नक्शे क दम पर चलना शुरू किया उसके तहत बड़े-बड़े शहर पूंजी केन्द्रित होते चले गये और रोजगार के स्रोत भी ये शहर ही बने। दिल्ली इन दिनों जानलेवा वायु प्रदूषण की शिकार है, लोग अपने घरों तक में सुरक्षित नहीं हैं। कोलकाता, मुम्बई, पटना जैसे महानगरों में जल निकासी की माकूल व्यवस्था न होना शहर में जल भराव का स्थायी कारण बनता रहा है, वह भी जानलेवा होकर। मुम्बई में मीठी नदी के उथले होने और सीवर की 50 साल पुरानी व्यवस्था के जर्जर होने के कारण बाढ़ के हालात बनना सरकारें स्वीकार करती रही हैं। बेंगलुरु में पारंपरिक तालाबों के मूल स्वरूप में अवांछित छेड़छाड़ को बाढ़ का कारक माना जाता है। शहरों में बाढ़ रोकने के लिए सबसे पहला काम तो वहां के पारंपरिक जल स्रोतों में पानी की आवक और निकासी के पुराने रास्तों में बन गए स्थायी निर्माणों को हटाने का काम करना होगा।
यदि किसी पहाड़ी से पानी नीचे बहकर आ रहा है तो उसका संकलन किसी तालाब में ही करना होगा। विडंबना है कि ऐसे जोहड़-तालाब कंक्रीट की नदियों में खो गए हैं। परिणामत: थोड़े ही बारिश में पानी कहीं बहने को बहक ने लगता है और बाढ़ के हालात बन जाते हैं। शहर के लिए सडक़ चाहिए, बिजली चाहिए, जल चाहिए, मकान चाहिए और दफ्तर चाहिए। इन सबके लिए या तो खेत होम हो रहे हैं या फिर जंगल। जंगल को हजम करने की चाल में पेड़, जंगली जानवर, पारंपरिक जल स्रोत सभी कुछ नष्ट हो रहा है। यह वह नुकसान है जिसका हर्जाना संभव नहीं है और यही वायु प्रदूषण का बड़ा कारण है। शहरीकरण यानी रफ्तार और रफ्तार का मतलब है वाहन और वाहन है कि विदेशी मुद्रा भंडार से खरीदे गए ईंधन को पी रहे हैं और बदले में दे रहे हैं दूषित वायु। शहर को ज्यादा बिजली चाहिए यानी ज्यादा कोयला जलेगा, ज्यादा परमाणु संयंत्र लगेंगे। शहर का मतलब है औद्योगिकीकर और अनियोजित कारखानों की स्थापना, जिसका परिणाम है कि हमारी लगभग सभी नदियां अब जहरीली हो चुकी हैं।
ललित गर्ग
(लेखक स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)