दिल्ली की हवा से पराली का धुआं निकल गया है पर लंबे अरसे के बाद दिल्ली के लोगों को सड़कों पर बस जलाए जाने से निकलने वाला धुआं दिखाई दिया है। दो दशक के बाद आए सबसे सर्द दिसंबर में बसों की आग की तपिश और धुएं की गंध चुनाव से ऐन पहले लोगों को बावला बना देने वाली है। अगले महीने दिल्ली में चुनाव हैं और उससे पहले एक ऐसी हिंसा शुरू हुई है, जिसमें शामिल लोगों को पहचानने के लिए उनका पहनावा देखने की सलाह खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दी है। हिंसा का यह मुद्दा भी प्रधानमंत्री मोदी की सरकार ने ही दिया है। हिंसा से प्रभावित इलाका भी जामिया नगर का है, जिसके लोगों को पहनावे से भी पहचानने की जरूरत नहीं है। इलाके के नाम से ही लोगों को पहचाना जा सकता है।
सोचें, जामिया नगर और जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्रों की कथित हिंसा और पुलिस की बर्बरता से दिल्ली के बाकी हिस्सों में क्या मैसेज गया है? दिल्ली का भूगोल बहुत छोटा है। और यह घटना ऐसी है, जिसका सीधा प्रसारण भी टेलीविजन चैनल करें तो सरकार नाराज नहीं होगी। वैसे तो सरकार ने पूर्वोत्तर में सड़क पर उतर कर नागरिकता कानून का विरोध करने वाले लोगों के प्रदर्शन का प्रसारण करने से चैनलों को रोका है। पर ऐसा लग रहा है कि ऐसी रोक दिल्ली के जामिया नगर में होने वाले प्रदर्शन के प्रसारण पर नहीं है।
आखिर जामिया नगर के लोगों और जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्रों को हिंसा करते दिखाया जाएगा तभी तो चुनाव से पहले दिल्ली में चल रहे राजनीतिक विमर्श को बदलने में आसानी होगी और नया नैरेटिव बनाने में सुविधा होगी। ध्यान रहे भाजपा के दिल्ली के प्रदेश अध्यक्ष और दूसरे नेता असम में नागरिकता रजिस्टर बनने के बाद से ही मांग कर रहे हैं कि दिल्ली में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर लागू किया जाए।
दिल्ली में यह भाजपा का बरसों पुराना एजेंडा है। दशकों से उसके नेता दावा करते रहे हैं कि दिल्ली की झुग्गियों में बड़ी संख्या में बांग्लादेशी प्रवासी रहते हैं। हालांकि असम में एनआरसी से पता चला है कि ज्यादातर बांग्लादेशी प्रवासी हिंदू हैं पर भाजपा ने उन सबको मुस्लिम बता कर प्रचारित किया है।
तभी ऐसा लग रहा है कि नागरिकता कानून में संशोधन होने और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर की तैयारी का मिला जुला असर यह होगा कि दिल्ली में सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण कराना आसान हो जाएगा। पिछले दिनों पुरानी दिल्ली में एक मंदिर के पास स्कूटर लगाने जैसी मामूली बात पर दो समुदायों के बीच हिंसा हुई थी और मंदिर में तोड़-फोड़ की घटना हुई थी। भाजपा के तमाम नेता मौके पर पहुंचे थे और कई दिन तक इसे लेकर तनाव चलता रहा था। अंततः स्थानीय लोगों की दखल से मामला शांत हुआ।
असल में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में लोकप्रिय राजनीतिक विमर्श को ऐसा आयाम दिया है, जो आमतौर पर भारत की राजनीति में नहीं चलता है। जातीय समीकरण और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की बजाय केजरीवाल ने आम लोगों के लिए काम करने का नैरेटिव बनाया है। उन्होंने पांच साल पहले सत्ता में आते ही बिजली और पानी सस्ती करने का अपना वादा पूरा कर दिया था। उसके बाद यह सुनिश्चित किया कि पांच साल तक पानी और बिजली के दाम नहीं बढ़ें। इस बीच शिक्षा और स्वास्थ्य में सुधार को लक्ष्य बना कर उनकी सरकार ने काम किया। आज दिल्ली की शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा एक मॉडल बना है, जिसकी तर्ज पर कई राज्य अपने यहां शुरुआत कर रहे हैं।
चुनाव से ऐन पहले केजरीवाल ने अपने बचे हुए वादे पूरे करने शुरू किए। दिल्ली में मुफ्त वाई-फाई की सेवा शुरू की, बसों में मार्शल नियुक्त किए, सीसीटीवी कैमरे लगवाए, घर बैठे मिलने वाली सेवाओं की संख्या एक सौ तक पहुंचाई। इस तरह की कई छोटी-बड़ी योजनाएं दिल्ली में शुरू हुईं, जिसके लाभार्थी में हर वर्ग व समुदाय के लोग शामिल हैं। तभी दिल्ली की हवा में केजरीवाल की वापसी की संभावना साफ महसूस की जा रही थी। पर अब इस हवा में ऐसी हिंसा का धुआं शामिल हो गया है, जिसकी गंध सकारात्मक कामों की महक को प्रदूषित कर सकती है।
यह अनायास नहीं है कि चुनावों से ऐन पहले एक ही समय में दिल्ली के तीन सबसे प्रतिष्ठित केंद्रीय विश्वविद्यालयों- जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया विश्वविद्यालय में आंदोलन चल रहे हैं। सरकार इन आंदोलनों को खत्म नहीं होने देगी। क्योंकि जेएनयू और जामिया के सहारे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का एजेंडा चलाया जा सकता है।
अरविंद केजरीवाल अपनी तरफ से कोई भी ऐसा काम नहीं करते हैं, जिससे भाजपा को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कराने का मौका मिले। वे दूसरे राज्यों के विपक्षी मुख्यमंत्रियों की तरह मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोपों में बदनाम भी नहीं हैं। वे ममता बनर्जी की तरह हर दिन नरेंद्र मोदी या अमित शाह को भी कोसते नहीं रहते हैं। तभी भाजपा के लिए उन्हें मुस्लिमपरस्त नेता के तौर पर ब्रांड करना मुश्किल है। पर अब एक केंद्रीय कानून के जरिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के एजेंडे को बढ़ाया जा सकता है। नए नागरिकता कानून के जरिए या राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर की चर्चा से यह काम हो सकता है।
केजरीवाल के लिए राहत की बात यह है कि जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी को अगले कुछ दिन के लिए बंद किया जा रहा है। उम्मीद करनी चाहिए कि इस बीच जामिया नगर, ओखला या ऐसे मुस्लिम बहुल किसी इलाके में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कराने वाली कोई घटना नहीं होगी। केजरीवाल को भी अपने कम से कम एक विधायक अमानतुल्ला खान को काबू में रखना होगा। अन्यथा उनके नाम के सहारे ही दिल्ली में दंगे हो सकते हैं।
अजीत द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं