हिंसक आंदोलन का बुरा ही अंजाम

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महावीर जयंति के अवसर पर हार्वर्ड केनेडी स्कूल की एक रपट दुनिया के आंदोलनों पर छपी है। यह खोजपूर्ण रपट इस मुद्दे पर छपी है कि पिछले 100 वर्षों में कितने हिंसक आंदोलन सफल हुए हैं और कितने अहिंसक? इसके मुताबिक 36 प्रतिशत हिंसक आंदोलन सफल हुए हैं जबकि 54 प्रतिशत अहिंसक आंदोलन सफल हुए हैं। इस शोध-कार्य में विद्वानों ने दुनिया के 323 आंदोलनों का विश्लेषण किया था।

पिछले 20 वर्षों में 69 प्रतिशत अहिंसक आंदोलनों ने सफलता प्राप्त की है। 20 वीं सदी में सबसे बड़े दो आंदोलन हुए। एक रुस में और दूसरा चीन में। ये दोनों आंदोलन मार्क्सवादी थे। दोनों हिंसक थे। दोनों में लाखों लोग मारे गए। रुस के सोवियत आंदोलन के नेता व्लादिमीर इलिच लेनिन थे और चीन के माओ-त्से-तुंग थे। एक ने जारशाही को उखाड़ फेंका और दूसरे ने च्यांग काई शेक को!

दोनों आंदोलन सफल हुए लेकिन उनका अंजाम क्या हुआ ? दोनों सिर के बल खड़े हो गए। दोनों असफल हो गए। वर्गविहीन समतामूलक समाज स्थपित करने की बजाय दोनों कम्युनिस्ट राष्ट्र निरंकुश तानाशाही में बदल गए। आज कोई भी उनका नामलेवा-पानीदेवा नहीं बचा है। इसी तरह के हिंसक तख्ता-पलट पूर्वी यूरोप, क्यूबा, इराक, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, मिस्र, ईरान आदि में भी हुए लेकिन वे कितने दिन चल पाए ? उन्होंने कौनसी ऊंचाइयां छुईं? या तो शीघ्र ही उनका अंत हो गया या उनसे जन्मी व्यवस्थाएं अभी तक सिसक रही हैं। भारत में भी हिंसा हुई लेकिन उसकी आजादी का संघर्ष मूलतः अहिंसक था। इसीलिए भारत में आज भी लोकतंत्र जगमगा रहा है और विविधतामयी समाज लहलहा रहा है।

भारत में आज भी कई स्थानों पर हिंसक आंदोलन चल रहे हैं लेकिन वे बांझ साबित हो रहे हैं। नक्सलवादी और कश्मीरी आतंकवादी हजार साल तक भी खून बहाते रहें तो वे सफल नहीं हो सकते। यह बात अफगानिस्तान और पाकिस्तान के तालिबान और इस्लामी आतंकवादियों को भी अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए। वे नेपाल के माओवादियों से कुछ सबक क्यों नहीं लेते? वे इस परम सत्य को क्यों नहीं समझते कि हिंसा से प्राप्त सत्ता को बनाए रखने के लिए उससे दुगुनी हिंसा निरंतर करते रहनी पड़ती है। नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी अपने-अपने समय में सफल जरुर हुए लेकिन उनका हश्र क्या हुआ, क्या हमें पता नहीं है ?

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लेकख वरिष्ठ पत्रकार हैं और ये उनके निजी विचार हैं

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