स्कॉटलैंड की संसद ने एक ऐसी पहल की है, जिससे दुनिया भर के देश चाहें तो सीख ले सकते हैं। स्कॉटलैंड की संसद ने सर्वसमति से महिलाओं से जुड़े स्वच्छता उत्पादों को मुत बांटने के लिए कानून पास किया है। इस कानून के साथ स्कॉटलैंड मासिक धर्म से जुड़े उत्पादों को मुत में देने वाला दुनिया का पहला देश बन गया है। अब वहां जिससे सार्वजनिक भवनों में सैनिटरी उत्पादों तक मुत पहुंच एक कानूनी अधिकार बन गया है। मतदान के पहले संसद में एक सदस्य ने अहम टिप्पणी की। कहा- इस पर आम सहमति है कि देश में किसी को भी चिंता नहीं करनी चाहिए कि उनका अगला टैंपॉन या सैनिटरी पैड दोबारा कहां से मिलेगा?अप्रैल 2019 में ये बिल को संसद में पेश किया गया था। कानून के तहत मासिक धर्म से जुड़े उत्पाद को सामुदायिक केंद्रों, युवा क्लबों, शौचालयों और फार्मेसियों में भी रखा जाएगा। महिलाओं और युवतियों के लिए तय जगहों पर टैंपॉन और सैनिटरी पैड उपलब्ध कराए जाएंगे और मासिक धर्म के साथ महिलाएं इन वस्तुओं को मुफ्त में प्राप्त कर सकेंगी। उन्हें यानी अब इसे खरीदने के लिए स्टोर या बाजार नहीं जाना पड़ेगा।
विश्वविद्यालयों, कॉलेजों और स्कूलों को भी अपने शौचालयों में उत्पाद को मुफ्त देने के लिए कहा गया है, ताकि छात्राएं जरूरत के मुताबिक उनका इस्तेमाल कर सकें। स्कॉटलैंड की सांसद मोनिका लेनॉन ने इसके लिए चार साल तक अभियान चलाया। आखिर ऐसा कानून बना, जिसे दुनिया को रास्ता दिखाने वाला बताया गया है। अब लेनॉन का अगला अभियान यह है कि स्कूलों में मासिक धर्म पर शिक्षा दी जाए, मासिक धर्म को कलंक मानने की प्रथा को खत्म किया जा सके। स्कॉटलैंड सरकार ने अब कहा है कि नया कानून यह साफ संदेश देता है कि स्कॉटलैंड किस तरह का देश बनता दिखना चाहता है। स्कॉटलैंड की एक मंत्री ने कहा कि उन्हें इस महत्वपूर्ण कानून के पक्ष में मतदान करने पर गर्व है। पर्यवेक्षकों ने इसे महिलाओं और लड़कियों के लिए एक महत्वपूर्ण नीति बताया है। ये कानून भारत जैसे देश के लिए एक उदा उदाहरण है। मासिक धर्म को गोपनीय और कलंक मानने की सोच अपने देश में भी है। अपने देश में गरीबी इतनी है कि सिर्फ एक तिहाई महिलाएं ही सैनेटरी पैड खरीद पाती हैं। इसलिए भारत में भी स्कॉटलैंड की तर्ज पर पहल जरूर होनी चाहिए।
किसानों के मसले को ही ले लें। किसानों के दिल्ली आने से रोकने के लिए सरकार ने जो तरीके अपनाए, वो हैरत में डालने वाले हैं। ज्यादा हैरत इसलिए हुई क्योंकि ये किसान किसी पार्टी या एक संगठन से जुड़े हुए नहीं थे। इसकी आंदोलन की पहचान विशुद्ध रूप से किसान आंदोलन की है। किसान कथित कृषि सुधार के तीन कानूनों और प्रस्तावित नए बिजली कानून का विरोध कर रहे हैं। अगर सरकार ने इनकी बात नहीं सुनी, तो क्या उन्हें विरोध जताने का हक नहीं है? क्या देश में लोकतंत्र औपचारिक रूप से खत्म हो चुका है? और फिर जिस तरह के तरीके अपनाए गए, उनका क्या तुक है? इतना ही नहीं, सरकार प्रेरित प्रचार तंत्र ने इन किसानों को खालिस्तानी, नक्सली और विपक्षी साजिश का हिस्सा तक बता दिया। क्या सरकार ऐसा करके देश में घुटन का माहौल नहीं बना रही है? उत्तर प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड, राजस्थान, केरल और पंजाब के किसान करीब दो महीने से 26 नवंबर यानी संविधान दिवस के दिन विरोध प्रदर्शन की योजना बना रहे थे। सरकार अगर उन्हें दिल्ली आकर अपनी बात कहने देती तो उससे कोई आसमान नहीं टूट जाता। लेकिन देश ने कुछ अलग नजारा ही देखा।