सोशल मीडिया पर नियंत्रण की जरूरत भी है और इसके खतरे भी हैं। जितनी जरूरत है, उससे ज्यादा खतरे हैं। इसलिए चाहे सोशल मीडिया से आधार को लिंक करने की पहल करने वाली तमिलनाडु सरकार हो या सोशल मीडिया पर नियंत्रण के उपाय की अनिवार्यता बताते हुए केंद्र सरकार से जवाब मांगने वाली सुप्रीम कोर्ट हो या नियंत्रण के लिए गाइडलाइन तैयार कर रही केंद्र सरकार हो, सबको बहुत सावधानी से और सोच समझ कर पहल करनी होगी। कहीं ऐसा न हो कि सोशल मीडिया पर नियंत्रण का प्रयास लोगों की वाक व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नियंत्रण में न तब्दील हो जाए। इन दोनों में ज्यादा फर्क भी नहीं है।
ध्यान रहे इसी वजह से जब भी पारंपरिक मीडिया यानी अखबार या न्यूज चैनलों पर चलने वाले भड़काऊ और कई बार बिल्कुल गलत खबरों को लेकर विवाद होता है तो मीडिया समूहों से कहा जाता है कि वे सेल्फ रेगुलेशन लागू करें क्योंकि सरकार अगर कानून बना कर इसे नियंत्रित करने का प्रयास करेगी तो लोगों के मौलिक अधिकार प्रभावित हो सकते हैं। यहीं बात सोशल मीडिया के बारे में भी कही जा सकती है।
आखिर इसी चिंता में तो सुप्रीम कोर्ट ने कानून की धारा 66ए को निरस्त किया था। आईटी एक्ट की इस धारा के आधार पर कई राज्यों में पुलिस ने लोगों पर कार्रवाई की। किसी नेता के खिलाफ लिखी गई सोशल मीडिया पोस्ट को आधार बना कर लोगों को गिरफ्तार किया गया। इस तरह की शिकायतें बढ़ीं तो जस्टिस जस्ती चेलमेश्वर और जस्टिस रोहिंटन नरीमन की बेंच ने मार्च 2015 में इस धारा को ही निरस्त कर दिया। पर अब वहीं सुप्रीम कोर्ट चाह रही है कि सरकार नियंत्रण के दिशा निर्देश तैयार करे। सवाल है कि पिछले चार साल में आखिर ऐसा क्या बदल गया, जिसकी वजह से देश की सर्वोच्च अदालत को इतनी चिंता करनी पड़ रही है? साथ यह भी सवाल है कि लोगों की आजादी को बचाए रखते हुए सोशल मीडिया को किस तरह से नियंत्रित किया जा सकता है?
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को सुनवाई के दौरान सोशल मीडिया को लेकर बहुत चिंता जाहिर की। एक जज ने कहा कि हो सकता है कि लोग सोशल मीडिया पर एके-47 की खरीद बिक्री करने लगें। उन्होंने यह भी कहा कि लगता है कि उनको स्मार्ट फोन छोड़ कर साधारण फीचर फोन ही लेना पड़ेगा। माननीय जज की चिंता जायज पर यह साथ ही यह भी समझना होगा कि ऐसे खतरे हर तकनीक के साथ होते हैं। सोशल मीडिया तो बाद की चीज है पर उससे पहले ही इंटरनेट और मोबाइल फोन के गलत इस्तेमाल की ढेर सारी खबरें आ चुकी हैं। सोशल मीडिया पर जो भड़काऊ वीडियो वायरल किए जाते हैं या हिंसा, बलात्कार की तस्वीरें या वीडियो वायरल किए जाते हैं वे कैमरे वाले मोबाइल फोन से बनाए गए होते हैं तो इसे रोकने के लिए कैमरे वाले मोबाइल फोन पर रोक लगाना कोई उपाय नहीं है। सो, स्मार्ट फोन छोड़ना कोई समाधान नहीं है।
उसकी बजाय सरकारों और अदालतों को आम लोगों की अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा करते हुए सोशल मीडिया के दुरुपयोग को रोकने के उपाय खोजने होंगे। यह आसान नहीं होगा और न किसी एक संस्था या एजेंसी के जरिए होगा। इसमें सरकार की सारी संस्थाओं के साथ साथ सोशल मीडिया की कंपनियों को भी शामिल करना होगा और साथ ही इंटरनेट और फोन की सेवा देने वाले नेटवर्क को भी शामिल करना होगा। साथ ही लोगों को इसके इस्तेमाल के बारे में जागरूक भी करना होगा। यानी इसके लिए बहुस्तरीय प्रयास करने की जरूरत होगी।
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा है कि वह दो हफ्ते में बताए कि सोशल मीडिया का दुरुपयोग रोकने के लिए वह क्या गाइडलाइन बनाने जा रही है। साथ ही सर्वोच्च अदालत ने यह भी कहा है कि सिर्फ यह कहने से काम नहीं चलेगा कि सरकार के पास सोशल मीडिया का दुरुपयोग रोकने की कोई तकनीक नहीं है। अदालत चाहती है कि सोशल मीडिया इस्तेमाल करने वालों के लिए सख्त दिशानिर्देश तय किए जाएं। पर मुश्किल यह है कि जब तक सोशल मीडिया कंपनियां इस काम में सहयोग नहीं करेंगी तब तक ऐसा होना मुश्किल है। किसी भी एजेंसी के पास ऐसी तकनीक नहीं है, जिससे किसी भी मैसेज को ओरिजिन का पता लगाया जा सके। यानी यह पता लगाया जा सके कोई भी फर्जी खबर या भड़काऊ वीडियो या मैसेज किसने बनाया और कैसे फैलाया। यह काम बहुत व्यवस्थित तरीके से हो रहा है। इसमें शामिल लोग फर्जी नाम, एड्रेस, प्रॉक्सी सर्वर, फर्जी नामे से बनाए आईपी एड्रेस आदि का इस्तेमाल करते हैं। सोशल मीडिया की सभी कंपनियां– गूगल, फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप आदि भारत से बाहर की कंपनियां हैं। इनको बहुत मजबूर भी नहीं किया जा सकता।
अगर सरकार चाहे कि सोशल मीडिया यूजर्स के एकाउंट को आधार से लिंक किया जाए या सोशल मीडिया कंपनियों को साथ लेकर हर यूजर्स की निगरानी की जाए तो यह बहुत मुश्किल है। ऊपर से इसमें खतरा भी है। लोग अपना निजी डाटा शेयर नहीं करना चाहेंगे। अगर सरकार इस तरह के डाटा का एक्सेस निजी कंपनियों को देती है तो और बड़ा खतरा है। फेसबुक का डाटा लीक होने की कैंब्रिज एनालिटिका की घटना ज्यादा पुरानी नहीं है।
सो, आम लोगों के अधिकार प्रभावित न हों, उनकी निजता के लिए खतरा न पैदा हो और दुरुपयोग भी रूके ऐसे उपाय करने होंगे। कंपनियां ऐसे उपाय कर रही हैं, जैसे व्हाट्सएप ने पांच लोगों से ज्यादा को एक साथ मैसेज फारवर्ड करने की सुविधा रोक दी। इसी तरह के उपायों से नियंत्रण होगा।
सुशांत कुमार
लेखक स्तंभकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं