सैन्य बलों में ऐसा क्यों हो रहा है?

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कुछ समय पहले सरकार द्वारा संसद में दी गई यह जानकारी अभी ठंडी भी नहीं हो पाई थी कि हर साल हमारे अर्ध-सैनिक बलो व सेना के जवान व दूसरे कर्मी दुश्मन के साथ युद्ध, माओवादी, आतंकवाद या दूसरी घुसपैठी घटनाओं में जितने मारे जाते हैं उससे कहीं ज्यादा लोग अपने साथियो की गोलियो का शिकार बनते हैं। वे आत्म हत्या भी कम नहीं करते।हाल में अब छत्तीसगढ़ के नारायणपुर जिले में भारत-तिब्बत सीमा पुलिस बल के एक जवान द्वारा अपने ही पांच साथियों को गोली सॉ मार डालने की जो खबर आई। यह उसी श्रृंखला की अगली कड़ी है। बाद में उसने खुद को भी गोली मारकर आत्म हत्या कर ली।

बताते हैं कि वह जवान काफी लंबे अरसे से नौकरी पर काम करने के बावजूद अपने वरिष्ठो द्वारा छुट्टी न दिए जाने से नाराज था और जब उसके कुछ साथियों ने उसकी इस नाराजगी पर हंसी उडाई तो वह इतना बौखला गया कि उसने उन्हें ही गोली मारकर अपना गुस्सा उन पर उतार दिया। सशस्त्र बलो खासतौर पर सेना और अर्धसैनिक बलो में इस तरह के मामले देखने को मिलते आए हैं।

अर्ध-सैनिक बलो में सीआरपीएफ, बीएसएफ, सीआईएसएफ, सशस्त्र सेना बल, आईटीबीपी आदि शामिल हैं। इन संगठनों में कई बार अपने हालात से दुखी जवान या तो अपने ही साथियो को अपनी नाराजगी का शिकार बना लेते हैं अथवा आत्महत्याएं कर लेते हैं। आंकड़े बताते है कि भारतीय सशस्त्र बलो के 892 जवानो ने 2011 से 2018 के बीच आत्म हत्याएं की। जबकि इसी अवधि में सैकड़ो मामले अपने साथियो के अलावा अपने अफसर को गोली मारने के सामने आएं।

सशस्त्र सेनाओं के अलावा 2012 से 2015 के बीच सीआरपीएफ के 149 जवानो ने आत्महत्याएं की जबकि सीआईएसएफ में भी आत्महत्या की वारदाते हुई तो आईटीबीपी के 25 व एसएसबी के इतने ही जवानो ने आत्महत्याएं की।

अहम बात तो यह है कि इसके बावजूद सरकार इसे गंभीर बात नहीं मानती है व उसका कहना है कि यह संख्या तो बहुत सामान्य है। पुलिस विकास एवं अनुसंधान ब्यूरो के एक अध्ययन के मुताबिक ज्यादातर ऐसे मामलो में यह देखने को मिला है कि जवान या दोषी व्यक्ति बहुत अधिक तनाव से गुजर रहे होते हैं। उसकी अपनी तबियत, परिवार से दूर रहने, पारिवारिक समस्याओं, छुट्टी न मिलने व शराब पीने के कारण इस तरह की घटनाएं घटती है।

अक्सर अफसरो का बरताव भी उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर कर देता है। एक बार सीमा सुरक्षा बल के एक आला अधिकारी ने मुझे इसकी वजह बताई थी। उनका कहना था कि सुरक्षा बलो में हर अधिकारी अपने अधीनस्थ को काफी नीची नजरो से देखता है व उसके साथ असामान्य व अमानवीय व्यवहार करता है। जैसे जब सीमा पर तैनात एक जवान के घर से चिट्ठी आती है कि उसकी मां बहुत बीमार है तो वह उसे देखने जाने के लिए छुट्टी लेना चाहता है तो उसका अफसर उसे लताड़ते हुए कहता है कि तू क्या डाक्टर है जोकि उसको ठीक कर लेगा। मन मसौस कर जवान वहीं रह जाता है।

फिर कुछ समय बाद उसकी मां के मरने की खबर आती है तो पुनः छुट्टी मांगने पर वही अफसर कहता है कि अब तक तो मां का अंतिम संस्कार भी हो गया होगा। तू वहां जाकर क्या करेगा। वे अपने परिवारो से काफी लंबी अवधि तक दूर रहते हैं व अपनी समस्याओं को भुलाने के लिए शराब का सहारा लेने लगते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि हमने जिस व्यक्ति के हाथ में बंदूक पकड़ाई हुई है वह अगर असामान्य हो गया तो उसकी क्या परिणति होगी?

अफसर अपने अधीनस्थ से जमकर घर का काम करवाते हैं। सेना में तो घर के काम के लिए उन्हें वैस्ट मैन के रूप में जवान दिए जाने की व्यवस्था है जोकि मूलतः एक प्रशिक्षु सिपाही होता है। उससे यह लोग जूते पालिश करवाने से लेकर बीबियो के कपड़े धुलवाने, घर की सफाई आदि तक के काम करवाते हैं। जवान भी बंधी बंधाई नौकरी से परेशान होकर यह काम करने लगता है।

मेरे एक परिचित अधिकारी को समय से काफी पहले ड्राइवर को बुलवा लेने की आदत थी। अगर उन्हें नौ बजे घर से निकलना होता तो वह उसे 7 बजे ही घर पर बुला लेते थे व ड्राइवर गाड़ी में बैठा उनका इंतजार करता रहता व अवसाद से गुजरता रहता था। ध्यान रहे कि एक साल पहले बीएसएफ के एक जवान ने वहां मिलने वाले घटिया खाने की खबर तस्वीर सोशल मीडिया पर जारी की थी। उसके बाद उसकी समस्याएं और बढ़ गई व अंततः उसने इस्तीफा दे दिया।

यही वजह है कि बेरोजगारी के बावजूद काफी बड़ी तादाद में अर्ध-सैनिक बलो के जवान व अफसर इस्तीफे दे रहे हैं। उनको न तो समय पर छुट्टियां मिल पाती है और न ही वे जब चाहते तब अपने परिवारो से मिलने जा सकते हैं। एक बड़ी समस्या उन्हें व सेना में सैनिको को मिलने वाले वेतनमान के अंतर की भी हैं। उन्हें पूर्व सैनिको की तरह रिटायरमेंट के बाद सरकारी नौकरियों में आरक्षण तक नहीं मिलता है।

अहम बात यह है कि हालात इतने खराब होने के बावजूद सरकार इससे जरा भी चिंतित नहीं है। चाहे सरकार किसी की भी क्यों ने हो। सोच सबकी एक ही रही है। क्योंकि गृह मंत्रालय के इस तरह के सवालो का जवाब देने वाले बाबू अपनी फाइल में लगे जवाबो को देखकर यही लिख देते हैं कि यह समस्या गंभीर नहीं है।

विवेक सक्सेना
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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