साथ लेकर चलने से ही खेलों में तरक्की

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जिस दिन भारतीय महिला हॉकी टीम टोक्यो ओलिंपिक्स के सेमीफाइनल में अर्जेंटीना से हारी, उस दिन खबर आई कि वंदना कटारिया के घर के पास दो लोगों ने ‘जश्न’ मनाते हुए शर्मनाक हरकतें कीं। वंदना ओलिंपिक्स में भारतीय महिला हॉकी में हैट-ट्रिक गोल दागने वाली पहली खिलाड़ी हैं। आखिर वह बदनुमा ‘जश्न’ क्यों मनाया गया? स्थानीय मीडिया के मुताबिक जश्न मनाने वाले ऊंची जाति के थे और वंदना दलित परिवार से हैं, साथ ही महिला हॉकी टीम में दलित खिलाड़ियों की संख्या ज्यादा है।

मैं एक खतरनाक सवाल उठाना चाहता हूं कि ऐसा हॉकी के मामले में ही क्यों किया गया जबकि दूसरे कई खेलों, खासकर क्रिकेट में भारतीय विविधता कहीं ज्यादा है? केवल जाति की ही नहीं, नस्ल, भूगोल, धर्म की भी। सवाल खतरनाक इसलिए है क्योंकि इसपर प्रतिक्रिया इतनी तीखी होती है कि अधिकतर लोग यह बात कबूलने से डरते हैं कि भारतीय क्रिकेट ने सबको साथ लेकर चलने के बाद तरक्की ही की है। लेकिन हॉकी के साथ कोई बात है कि यह हमेशा से उपेक्षितों का खेल रहा है। अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, प्रताड़ित वर्गों और जातियों का।

मुसलमानों, सिखों, एंग्लो इंडियनों, पूर्वी-मध्य भारत के मैदानी इलाकों के गरीब आदिवासियों, मणिपुरियों, कोड़ावों ने दशकों हॉकी के जरिए प्रतिभा दिखाई है। वर्ष 1928 में जब भारतीय हॉकी ने ओलिंपिक्स में पहली बार एम्स्टर्डम में भाग लिया था, उस टीम में ध्यानचंद थे लेकिन उसके कप्तान के बारे में सरकारी रिकॉर्ड में सिर्फ जयपाल सिंह नाम दर्ज है। उनका पूरा नाम जयपाल सिंह मुंडा था। भारत को ओलिंपिक में पहला स्वर्ण पदक झारखंड के बेहद गरीब आदिवासी परिवार के बेटे की कप्तानी में मिला था। यह उस समृद्ध परंपरा की शुरुआत थी जिसके तहत पूर्वी-मध्य क्षेत्र के आदिवासी भारत ने लगातार हॉकी प्रतिभाएं दीं।

इस परंपरा को संस्थागत रूप दिया आदिवासी क्षेत्रों में बनी करिश्माई हॉकी अकादमियों ने, झारखंड के खूंटी में और ओड़ीशा के पास सुंदरगढ़ में। भारत को पहला ओलिंपिक गोल्ड दिलाने वाली टीम के कप्तान जयपाल सिंह मुंडा को एक ब्रिटिश पादरी परिवार ने बचपन में ही अपने संरक्षण में ले लिया था।

उन्हें पढ़ने के लिए ऑक्सफोर्ड भेजा लेकिन उन्होंने खेल को अपनाया और भारत की सेवा करना पसंद किया। आदिवासियों के प्रतिनिधि के रूप में वे हमारी संविधान सभा में शामिल थे। वे अनिवार्य देशव्यापी शराबबंदी के सख्त खिलाफ थे। उन दिनों गांधीवादी माहौल की वजह से संविधान सभा का कुछ ऐसा ही इरादा दिख रहा था। लेकिन जयपाल सिंह मुंडा इसके खिलाफ अड़ गए।

बहरहाल, पहली टीम में आठ खिलाड़ी एंग्लो-इंडियन थे, जिनमें गोलकीपर रिचर्ड एलेन भी थे जिनका जन्म नागपुर में हुआ था। उस पूरे टूर्नामेंट में उन्होंने भारत के खिलाफ एक भी गोल नहीं होने दिया। उस हॉकी टीम में बाकी तीन खिलाड़ी मुस्लिम, एक सिख, युवा ध्यानचंद और बेशक झारखंड के एक आदिवासी थे, जो कप्तान थे। बाद की ओलिंपिक हॉकी टीमों में मुसलमान और सिख खिलाड़ियों की संख्या बढ़ती गई। इसीलिए देश के बंटवारे ने भारतीय हॉकी को भारी झटका पहुंचाया।

कई हॉकी प्रतिभाएं पाकिस्तान चली गईं और भारत 1960 के रोम ओलिंपिक में स्वर्ण पदक से वंचित रह गया। चूंकि बंटवारे की याद ताजा थी, पाकिस्तान हमारा नया मुख्य प्रतिद्वंद्वी था और उसके साथ युद्ध भी हो चुके थे, इसलिए 1970 के दशक तक भारतीय टीम में कम ही मुसलमान दिखते थे। लेकिन बाद में कई मुस्लिम खिलाड़ी सितारा बनकर उभरे। मोहम्मद शाहिद और जफर इकबाल तो कप्तान भी बने। लेकिन रास्ता खोलने वाले तो असलम शेर खान ही साबित हुए। भारतीय टीम विश्व कप केवल 1975 में जीत पाई, जो क्वालालंपुर में हुआ था।

उसमें मलेशिया के खिलाफ सेमी-फाइनल मैच में अंतिम सीटी बजने में सिर्फ एक मिनट बाकी था। भारत एक गोल से पीछे था। कई पेनल्टी कॉर्नर गंवाने के बाद 65वें मिनट में उसे एक पेनल्टी कॉर्नर मिला। कोच बलबीर सिंह (1948, 52, 56 में ओलिंपिक गोल्ड विजेता) ने मैदान के बाहर बैठे असलम को शॉट के लिए बुलाया।

युवा असलम मैदान पर आए, गले से लटकी ताबीज़ चूमी और मैच बराबर करने वाला गोल दाग दिया। मैच के लिए अतिरिक्त समय मिलता है और स्ट्राइकर हरचरण सिंह का गोल मैच का फैसला कर देता है। बाद में असलम राजनीति में कूदे, सांसद बने। अफसोस कि कोविड ने उन्हें हमसे छीन लिया।

आप चाहें तो गूगल पर सर्च कर सकते हैं कि 1975 की उस विश्व कप विजय के बाद के दशकों में भारतीय टीमों में कौन-कौन शामिल थे। आप पाएंगे कि यह प्रवृत्ति और मजबूत ही हुई। पुरुष टीम हो या महिला टीम, हर भारतीय टीम भारत की विविधता को पूरे शान से प्रदर्शित करती रही है। मणिपुर का माइती समुदाय सिर्फ 10 लाख की आबादी का है।

टोक्यो ओलिंपिक में इस समुदाय से पुरुष टीम में नीलकांत शर्मा थे, तो महिला टीम में सुशीला चानू थीं। निकट अतीत की बात करें तो आप तोइबा सिंह, कोथाजित, चिंगलेनसाना और नीलकमल सिंह को याद कर सकते हैं। क्या आपने उत्तर-पूर्व के किसी खिलाड़ी को भारतीय क्रिकेट टीम में अभी तक जगह पाते देखा है?

सबको मिले मौका
यह सवाल मत पूछिए कि सौ साल से हॉकी उपेक्षितों का खेल आखिर क्यों बना हुआ है? मैं केवल यह याद दिला सकता हूं कि सबको ज्यादा से ज्यादा शामिल करके ही भारतीय क्रिकेट अपने उत्कर्ष पर पहुंचा है। अब इसके साथ, जाति और योग्यता को लेकर बेमानी बहस खत्म होनी चाहिए। राष्ट्र तभी तरक्की करेगा जब वह सभी प्रतिभाओं को आगे लाएगा, चाहे वह समाज के किसी भी तबके में क्यों न हो।

शेखर गुप्ता
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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