सबसे बड़ा भक्त

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सबसे बड़ा भक्त
सबसे बड़ा भक्त

नारद मुनि सृष्टि के पावनकर्ता विष्णु जी के सबसे बड़े भक्त कहे जाते हैं। उनका तो काम ही नारायण का यशगान करते फिरना है। जहां भी जाते हैं, नारायण का नाम ही लेते हैं। नारद मुनि को भी विश्वास है कि पूरे संसार में वे ही प्रभु के सबसे बड़े भक्त हैं। एक बार की बात है, भू-लोक में बड़े-बड़े ऋषियों-मुनियों में शास्त्रार्थ हो रहा था। दूर-दूर से आए ज्ञानी और विषयों के जानकार मुनि जमा थे। शास्त्रार्थ का विषय था कि सच्ची ईश्वर भक्ति क्या है। एक पक्ष का मत था कि हमें इस संसार के माया-जाल और कर्म से मुक्त होकर प्रभु की शरण में जाना चाहिये, जो भिक्षा में मिल जाए उससे ही अपना जीवन-निर्वाह करना चाहिए। कर्म के माया-जाल में फंस कर हम सच्ची प्रभु भक्ति नहीं कर सकते।।

दूसरे पक्ष का मत था कि कर्म करना अति आवश्यक है। सच्चा प्रभु भक्ति के लिए हमें सभी कार्यों को, मोह रहित होकर करते रहना चाहिये। कर्म के बिना जीवन निरर्थक है और जीवन को निस्वार्थ भाव से जीना ही प्रभु के आदेशों का सही अनुपालन है, भक्ति है।

बड़े-बड़े तर्क, वितर्क हो रहे थे। वेदों, शास्त्रों, पुराणों में उदाहरण दिए जा रहे थे परन्तु कोई भी पक्ष दूसरे की बात स्वीकार नहीं कर रहा था। तभी वातावरण में नारायण का स्वर गूंजने लगा। सभी एकाग्र चित्र हो गए। देखा कि नारद मुनि पधार रहे हैं। उन्हें आता देख सभी महत्माओं ने निश्चय किया कि अपना पक्ष नारद मुनि के समक्ष रख कर, उन्ही से सच्चाई पूछी जाए। नारद मुनि ने आकर देखा कि अपने विद्वान जमा हैं।।

उन्नति के पथ पर
उन्नति के पथ पर

“नारायण……. नारायण! अरे, आज इतने बड़े-बड़े मुनि एक ही स्थान पर किस हेतु जमा है??”

“भगवान, आज निर्णय होना है कि सच्ची ईश्वर भक्ति इस जीवन में कर्म-जंजाल त्याग कर सन्यास ले लेना है या निःस्वार्थ एवं बिना फल की इच्छा किए कर्म करते रहना है?”

नारद मुनि ने दोनों पक्षों के तर्क सुने। दोनों ही पक्ष अपने तर्क इतने प्रभाव रूप से रख रहे थे कि स्वयं नारद मुनि, जो सन्यास व प्रभु स्मरण को ही सबसे बड़ी भक्ति मानते थे, भ्रमित हो गए। वे बोले, “नारायण….. नारायण! अरे, इसमें इतने तर्क-वितर्क की आवश्यता क्या है। आप लोग मेरी प्रतीक्षा करें, मैं स्वयं प्रभु से पूछकर आपको बता देता हूं।”

इतना कहकर नारद मुनि प्रभु का स्मरण करते हुए विष्णु-धाम जा पहुंचे। भला, द्वारपाल की क्या मजाल कि उन्हें रोकता। सीधे भगवान विष्णु के पास पहुंच गए। देखा कि आज प्रभु कोई आवश्यक कार्य करने में व्यस्त हैं। नारद मुनि लक्ष्मी जी को प्रणाम कर थोड़ी दूरी पर ही खड़े हो गए। पर विष्णु जी के पास इतना महत्वपूर्ण कार्य था कि वे नारद जी की ओर ध्यान ही नहीं दे रहे थे।

जब प्रतीक्षा की घड़ियां बहुत लम्बी हो चलीं और नारद मुनि के धैर्य ने जवाब दे दिया तो वे माता से पूछ ही बैठे, “मां, आज स्वामी किस महत्वपूर्ण कार्य में तल्लीन हैं? मुझ पर कृपा-दृष्टि ही नहीं डाल रहे। मुझसे क्या कोई भूल हो गई है?”

साभार
उन्नति के पथ पर (कहानी संग्रह)
लेखक
डॉ. अतुल कृष्ण

(अभी जारी है… आगे कल पढ़े)

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