सबकी हो अयोध्या, सबके हों राम

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अयोध्या में 492 वर्षों के विवाद का अब पटाक्षेप हो गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा भूमिपूजन के साथ ही मंदिर निर्माण की विधिवत शुरुआत हो गई है। जैसा कि दावा किया जा रहा है यह मंदिर भव्य बनेगा, अलौकिक होगा। राम भारत सहित दुनिया के करोड़ों लोगों की आस्था के प्रतीक हैं। वे सबके हृदय में वास करते हैं। यही कारण था, मुख्य प्रतीक ढह गए लेकिन राम का अस्तित्व अमिट बना रहा। राम को लोगों ने अपने हृदय, मन-मस्तिष्क में जिंदा रखा। यही कारण है कि जिस मंदिर ने अपना वजूद पांच सदी पहले खो दिया था, वह एक बार फिर साकार रूप लेने वाला है। इससे आगे सवाल उठता है कि राम और उनकी अयोध्या की पहचान क्या सिर्फ इस भव्य मंदिर तक सीमित रहेगी, या इसके कुछ अधिक व्यापक मायने भी होंगे? राम तो इस देश के आदर्श रहे हैं। आदर्श पुत्र, आदर्श शिष्य, आदर्श पति, आदर्श राजा। मर्यादा के पर्यायवाची हैं राम, इसीलिए मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए। सबकी इच्छा होती है- शासक कैसा हो, भगवान राम की तरह हो। राज्य कैसा हो, रामराज्य की तरह हो। राजा और राज्य को लेकर गांधी की भी यही संकल्पना थी। अब वक्त आ गया है, मंदिर से आगे की बात सोचने का। राम की अयोध्या को आदर्श केंद्र बनाने का। जैसे राम सबके हैं, उसी तरह अयोध्या सबकी रहीभारत में जन्मे हर मत, संप्रदाय का रिश्ता अयोध्या से रहा है। अयोध्या ने सबको स्वीकारा है। जैन मत के पहले तीर्थंकर ऋषभदेव अयोध्या के ही राजा नाभिराज और उनकी पत्नी मरुदेवी की संतान थे। वे खुद को राम की वंश परंपरा का मानते थे।

यही नहीं, जैन संप्रदाय के पांच तीर्थंकरों का रिश्ता अयोध्या से रहा है। अजितनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ और अनंतनाथ जैसे जैन तीर्थंकरों का जन्म भी अयोध्या में हुआ था। लंबे समय तक जैन मत का केंद्र रहा अयोध्या। कई विद्वानों का दावा है कि भगवान बुद्ध का परिवार भी खुद को राम की परंपरा से जोड़ता था। भगवान बुद्ध का अयोध्या से करीबी रिश्ता प्रमाणित है। अपने जीवन का लंबा कालखंड भगवान बुद्ध ने साकेत (अयोध्या) में बिताया। उन्होंने 16 सालों तक चातुर्मास अयोध्या में किया। भगवान बुद्ध ने सबसे पहले जिस राजा को बौद्ध धर्म की दीक्षा दी, वह अयोध्या के ही तत्कालीन राजा प्रसेनजित थे। बौद्ध मत के साथ अयोध्या के करीबी रिश्ते का जिक्र फाह्यान और ह्वेनसांग जैसे विदेशी यात्री भी अपने यात्रा-वृतांत में करते हैं। है। आध्यात्मिकता, सहिष्णुता और एकता की प्रतीक थी अयोध्या। इस नगरी ने सबको स्वीकारा। सबको जगह दी। उसी अयोध्या को हमें फिर से जिंदा करना होगा। उसको देश की ‘यूनिफाइंग फोर्स’ बनाना होगा। सामान्य जन के लिए अयोध्या मतलब है राम का निवास, रामराज्य का केंद्र। लेकिन, अयोध्या का अस्तित्व इतना ही नहीं है। अयोध्या सबकी रही है। भारत में जन्मे हर मत, संप्रदाय का रिश्ता अयोध्या से रहा है। अयोध्या ने सबको स्वीकारा है। जैन मत के पहले तीर्थंकर ऋ षभदेव अयोध्या के ही राजा नाभिराज और उनकी पत्नी मरुदेवी की संतान थे। वे खुद को राम की वंश परंपरा का मानते थे। यही नहीं, जैन संप्रदाय के पांच तीर्थंकरों का रिश्ता अयोध्या से रहा है।

अजितनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ और अनंतनाथ जैसे जैन तीर्थंकरों का जन्म भी अयोध्या में हुआ था। लंबे समय तक जैन मत का केंद्र रहा अयोध्या। कई विद्वानों का दावा है कि भगवान बुद्ध का परिवार भी खुद को राम की परंपरा से जोड़ता था। भगवान बुद्ध का अयोध्या से करीबी रिश्ता प्रमाणित है। अपने जीवन का लंबा कालखंड भगवान बुद्ध ने साकेत (अयोध्या) में बिताया। उन्होंने 16 सालों तक चातुर्मास अयोध्या में किया। भगवान बुद्ध ने सबसे पहले जिस राजा को बौद्ध धर्म की दीक्षा दी, वह अयोध्या के ही तत्कालीन राजा प्रसेनजित थे। बौद्ध मत के साथ अयोध्या के करीबी रिश्ते का जिक्र फाह्यान और ह्वेनसांग जैसे विदेशी यात्री भी अपने यात्रा-वृतांत में करते हैं। सिख मत का तो अयोध्या से और करीबी रिश्ता रहा है। गुरु नानकदेव महाराज ने 1510-11 में अयोध्या प्रवास किया। वह रामजन्म भूमि के दर्शन के लिए अयोध्या आए थे। यह मंदिर विध्वंस से 18 साल पहले का काल था। ध्यान रहे कि सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने फैसले में इसे सबूत के तौर पर स्वीकार किया है। सिर्फ गुरु नानकदेव जी ही नहीं, गुरु तेगबहादुर और उनके पुत्र तथा खालसा पंथ के संस्थापक गुरु गोविंद सिंह जी महाराज भी अयोध्या गए। बाद के कालखंड में निहंगों का खुद को राम की वंश परंपरा से जोडऩा और मंदिर मति के लिए संघर्ष तथा बलिदान करना सर्वविदित है। शैव, वैष्णव, नाथ आदि जितने छोटे-बड़े संप्रदाय रहे हैं, सबका अयोध्या केंद्र रहा है। भारत के बाहर जन्मे कई मतों के विद्वानों ने भी अयोध्या को अपना केंद्र बनाया और यहां अपनी आध्यात्मिक साधना संपन्न की।अब समय है कि हम एक बार फिर मंदिर से आगे बढ़कर अयोध्या को आध्यात्मिकता का केंद्र बनाएं। सभी मत-विचार के लोग एक-दूसरे का सम्मान करें।

राम के सहिष्णुता के आदर्श को देश-दुनिया के सामने लाएं। अगर हम राम के इस आदर्श को देश के सामने लाने में सफल हुए तो निश्चित तौर पर महात्मा गांधी ने जिस रामराज्य की संकल्पना की थी वह साकार होगा। ध्यान रहे, भूमिपूजन के मौके पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन राव भागवत ने कहा कि ‘सारे जगत को अपने में देखने और स्वयं में जगत को देखने की भारत की दृष्टि रही है।’ मोहन भागवत के इस कथन का ज्ञान भी हमें आध्यात्मिकता से ही मिलता है। सब एक हैं, सबमें एक जीव का वास है, ऐसा ज्ञान आध्यात्मिकता से ही प्राप्त हो सकता है।वैसे भी भारत की वास्तविक पहचान यही रही है कि वह सभी मतों और विचारों को सम्मान और स्थान देता रहा है। भारतीयता वास्तव में अध्यात्म आधारित समग्र जीवन दृष्टि है। इसमें सबका समावेश है। विविधता में एकता की परंपरा भारत की सुंदरता है। इसी को कोई भारतीयता कहता है, कोई हिंदुत्व कहता है। नाम अलग हैं, लेकिन ये हैं एक। जो जिस रूप में चाहे उसे स्वीकार कर ले। समाज में यह गुण न तो अर्थतंत्र से आता है और न ही राजनीतिक व्यवस्था से। इसकी अनुभूति अध्यात्म से होती है। यानी मेरा राम मेरे लिए प्रिय और तुम्हारा राम तुम्हारे लिए प्रिय। यानी न मुझको तुम्हारे राम से कटुता और न तुमको मेरे राम से कटुता। ऐसी भावना उत्पन्न हो गई तो मत-संप्रदायों को लेकर होने वाले झगड़े खत्म हो जाएंगे और भारत से शुरू होकर पूरी दुनिया में शांति हो सकती है। दुनिया को शांति और भाईचारे के रास्ते पर ले जाने की जरूरत है। इस कार्य का सूत्रपात करने के लिए राम की अयोध्या से बेहतर कोई और जगह नहीं है। इसीलिए पूजा-पाठ और मंदिर से आगे बढ़कर अयोध्या को अध्यात्म की नगरी में बदलने की जरूरत है। अगर हम ऐसा कर पाएं तो इस युग में भी ‘रामराज्य’ को संभव बनाया जा सकता है।

शिवेंद्र कुमार समन
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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