सत्ता संघर्ष की त्रासदी

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कर्नाटक की सत्ता का संघर्ष सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया, लोकतंत्र के लिए यह स्थिति ठीक नहीं जानी जा सकती। कांग्रेस का आरोप है कि भाजपा आपरेशन कमल चलाकर किसी भी ढंग से सत्ता पाना चाहती है जबकि इस आरोप को खारिज करते हुए भाजपा का तर्क है कि कर्नाटक में जो कुछ हो रहा है उसके पीछे कांग्रेस और जेडीएस का अपना अन्तर्विरोध है। पर अहम सवाल यही है कि कर्नाटक का सत्ता संघर्ष इतना पेचीदा और सब कुछ झोंक देने जैसा क्यों हो गया है! क्या इसलिए कि कर्नाटक की सत्ता पार्टियों के लिए एटीएम हो गयी है। क्या इसीलिए अपने विधायकों को बचाने के लिए रिजार्ट और आलीशान होटलों का सहारा लेना पड़ता है। राज्य की खदानें दरअसल सोने की खदानों जैसी है, सभी पार्टियों पर अवैध खनन को अंजाम देने वालों को सत्ता संरक्षण देने का आरोप लगता रहा है।

रेड्डी बंधुओं की सियासी हैसियत एक समय बड़ी चर्चा में रही है। तो क्या इसीलिए भाजपा भी कांग्रेस-जेडीएस के विरोधाभासों से फायदा उठाना चाहती है। इसी मुद्दे पर कांग्रेस के साथ समूचे विपक्ष ने संसद परिसर में मोदी सरकार के खिलाफ धरना दिया। दूसरी बार प्रचंड जनादेश के साथ केन्द्र की सत्ता में लौटी भाजपा से वैसे ही विपक्ष का मनोबल गिरा हुआ है और अब कर्नाटक संकट से शायद विपक्ष को समझ में आने लगा है कि आगे से नाचेते और एक जुटता का परिचय न दिया तो पार्टियां निस्तेज हो सकती हैं। जहां तक कांग्रेस का सवाल है तो उसे लगता है कि कर्नाटक में यदि भाजपा सफल हुई तब मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी सत्ता को अस्थिर करने की कोशिश हो सकती है। इन राज्यों में भी कांग्रेस अकेले दम पर सरकार में नहीं है।

यही वजह है कि कांग्रेस खासतौर पर कर्नाटक की सत्ताा को बचाने के लिए हर संभव कोशिश कर रही है। पर यह स्थिति ऐसे समय में पार्टी के सामने पैदा हुई हैए जब नये अध्यक्ष के लिए महीने भर से तलाश चल रही है और किसी नाम पर अब तक सहमति नहीं बन पायी है। राहुल गांधी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे चुके हैं, इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि बिना अध्यक्ष के पार्टी चल रही है। पांच राज्यों की सत्ता तक सिमट चुकी कांग्रेस के लिए निश्चित तौर पर कर्नाटक बचाना करो या मरो जैसा है। बेशक अपने ताकतवर दिनों में कांग्रेस ने भी इसी तरह मौका मिलने पर सत्ता बनायी थी। पर वही भाजपा भी करती दिखाई दे तो सवाल उठेंगे ही। अपने विशिष्ट चाल-चिंतन और चरित्र का दावा करने वाली भाजपा पर धन बल और सत्ता बल के बेजा इस्तेमाल का आरोप लगे तो स्वाभाविक ही है।

हालांकि यह भी मान रही है कि कांग्रेस-जेडीएस के बहुमत खो देने पर सरकार बनाने का दावा कर सकती है। इसमें कोई बुराई नहीं है। पर बेंगलुरु से लेकर मुम्बई तक पिछले कई दिनों से जो दिखता रहा है वह लोकतंत्र की उम्मीद को कमजोर करता है। पर इन सबके बीच एक सवाल यह भी है कि मुख्यमंत्री कुमार स्वामी ने ऐसी स्थिति में पहले ही विधानसभा भंग करने की सिफारिश क्यों नहीं कर दी। यह इसलिए कि कांग्रेस विधायकों ने आखिरकार दोबारा विधानसभा अध्यक्ष को इस्तीफा सौंप दिया है। अब रास्ता कहां बचा।

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