वादे ही वादे-इरादे गोल

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शायद ही कोई ऐसा नागरिक होगा जो सरकारी तंत्र की लालफीताशाही से परेशान न हो। चुनावदर-चुनाव सरकारी तंत्र को लोकोन्मुखी और भ्रष्टाचार मुक्त बनाने के वादे होते रहे। कुछ सरकारों ने इन वादों को जमीनी हकीकत का रूप देने की कोशिश भी की। लेकिन सरकारी तंत्र मुकमल तौर पर उस जनता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता नहीं जाहिर कर पाया, जिसके चुकाए टैस के पैसे से उसका घर चलता रहा। देश का हर नागरिक इस तथ्य से परिचित है, लेकिन जब भी सार्वजनिक या सरकारी क्षेत्र की किसी सेवा या संगठन का विनिवेश होता है, विरोध बढ़ जाता है। उस एमटीएनएल के विनिवेश का भी विरोध होने लगता है, जिसके कर्मचारी उदारीकरण के पहले तक टेलीफोन सेवा सुधारने के लिए कम, बिगाडऩे के लिए अधिक जाने जाते थे। अभी जिसकी आर्थिक स्थिति इजाजत नहीं देती, वही अपना बच्चा सरकारी स्कूल में पढ़ाता है। लेकिन शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ गुस्से में वे भी शामिल हैं, जिनका सरकारी शिक्षा तंत्र पर भरोसा नहीं है। कोई पूछ सकता है कि इस मुद्दे पर इतनी मगजमारी क्यों हो रही है?

दरअसल साल 2020-21 के बजट प्रस्तावों में सरकार ने देश की आर्थिक रीढ़ कहे जाने जाने वाले भारतीय जीवन बीमा निगम की हिस्सेदारी खुले बाजार में बेचने का फैसला किया है। विनिवेशीकरण की सरकारी नीतियों के मुखर विरोधी भी मानेंगे कि सार्वजनिक क्षेत्र का बेड़ा गर्क करने में राजनीति के साथ ही वहां कर्मचारियों और अधिकारियों की मानसिकता का भी बड़ा योगदान रहा है। कुछेक कंपनियों को छोड़ दें तो हर कंपनी-निगम के कर्मचारियों की मानसिकता काम न करने और वाजिब काम के लिए रिश्वत मांगने की रही है। आज भी सरकारी विभागों में इस रोग की पैठ इतनी गहरी है कि उस पर काबू पाना आसान नहीं लगता। बीएसएनएल हो या एमटीएनएल, एयर इंडिया हो या फिर सेंटूर होटल या ऐसे ही सार्वजनिक क्षेत्र का कोई और निगम या कंपनी, उनकी बुरी हालत के लिए जितनी राजनीतिक दखलंदाजी जिमेदार रही है, उससे कम जिमेदार वहां काम करने वाले लोगों की मानसिकता नहीं रही।

सार्वजनिक क्षेत्र के निगमों या कंपनियों में उसके प्रभारी मंत्री या अधिकारी की मर्जी ही ज्यादा चलती रही। सत्ताधारी तंत्र इन कंपनियों- निगमों को जहां दुधारू गाय समझता रहा, वहीं उनके कर्मचारी काम न करने और रिश्वतखोरीको अपना विशेषाधिकार मानते रहे। एनडीए सरकार में नागरिक उड्डयन मंत्री बनते ही शरद यादव ने तब एयर इंडिया के विदेशों में बनाए गए भारी-भरकम दफ्तरों पर सवाल उठाया था। उन दफ्तरों का मकसद विदेशी सरजमीं पर चहेतों को नियुक्ति देना और उन्हें मोटी कमाई में मदद पहुंचाना था। जबकि खर्च के अनुपात में उस खास विदेशी दफ्तर से एयर इंडिया को वाजिब संख्या में यात्री तक नहीं मिलते रहे। सार्वजनिक क्षेत्र की सेवा प्रदाता कंपनियों से बिना चढ़ावा बेहतर सुविधा की उम्मीद भी बेमानी रही। यही हालत सरकारी शिक्षा व्यवस्था की भी होती चली गई। कर्मचारी-अधिकारी अपने बुनियादी कर्तव्य यानी कंपनी, निगम के जरिए लोगों की सेवा को भूलते गए।

इसलिए जैसे ही उदारीकरण का दौर आया और निजी क्षेत्र की कंपनियों ने ग्राहकों को सुविधाएं देनी शुरू की, लोग सरकारी तंत्र की उन कंपनियों और निगमों से पीछा छुड़ाने लगे, जो अपने एकाधिकार के दौर में उनकी मजबूरी हुआ करते थे। फिर तो उनका कारोबार घटना ही था। और चूंकि अब दौर सब्सिडी और सहयोग का नहीं रहा, लिहाजा उनका विनिवेशीकरण होने लगा। आज भी सरकारी बैंक उसी रफ्तार से चल रहे हैं, जिस रफ्तार से पहले चलते थे। वे अब भी निजी क्षेत्र के पेशेवर बैंकों जैसी चुस्ती या प्रतिबद्धता की संस्कृतिक को नहीं अपना पाए हैं। दूर-दराज के इलाकों में अब भी उनके कर्मचारियों की दादागिरी चलती है। सरकारी तंत्र के प्रति भरोसे की वजह से ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों का भरोसा निजी बैंकों की तुलना में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर ज्यादा है। लिहाजा वहां के ग्राहक सरकारी तंत्र की बदअमली झेलने को मजबूर हैं। यह बात और है कि इसी तंत्र में भारतीय जीवन बीमा निगम, नेशनल इंश्योरेंस कंपनी, एनटीपीसी, ओएनजीसी जैसी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां भी हैं, जिनके कर्मचारियों और अधिकारियों की साख उनकी कार्यशैली और लोक प्रतिबद्धता के चलते बची हुई है।

यही वजह है कि जीवन बीमा निगम की हिस्सेदारी बेचने के सरकारी प्रस्ताव को लेकर एक वर्ग में मायूसी छाई हुई है। निगम की कर्मचारी यूनियन भी इसका विरोध कर रही है, हालांकि वह कंप्यूटराइजेशन और 1993 में गठित आरएन मल्होत्रा कमेटी की सिफारिशों को लागू करने की भी विरोधी रही है। यह बात और है कि निगम में कंप्यूटराइजेशन भी हुआ और 1994 में आई मल्होत्रा कमेटी की सिफारिश के बाद बीमा नियामक प्राधिकरण का गठन भी। जीवन बीमा निगम इन बदलावों के बावजूद बीमा क्षेत्र की ही नहीं, सरकार की भी आर्थिक रीढ़ बना रहा। यही वजह है कि इसके विनिवेश की कोशिश का विरोध हो रहा है। विनिवेशीकरण के विरोध में तर्क दिया जा रहा है कि सार्वजनिक क्षेत्र के निगमों और कंपनियों में बेहतर कार्यशैली लाने में सत्तातंत्र की कभी कोई दिलचस्पी ही नहीं रही।

किसी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी या निगम में सख्त और ईमानदार अफसर या तो भेजे नहीं गए या भेजे भी गए तो उन्हें जल्द चलता कर दिया गया। एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्था में अंधाधुंध निजीकरण को स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि एकाधिकार के बाद निजी क्षेत्र भी मनमानी पर उतर सकता है, जो सार्वजनिक क्षेत्र की मनमानी से कहीं ज्यादा खतरनाक साबित होगा। ये सवाल जायज हो सकते हैं। जब सरकारी नियंत्रण में रहते हुए भी अपनी कार्यशैली और परंपरा के चलते जीवन बीमा निगम, एनटीपीसी और ओएनजीसी बेहतर बने रह सकते हैं तो दूसरे निगम या कंपनियां क्यों नहीं? लेकिन इसके साथ ही हमें स्वीकार करना होगा कि सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों की कार्यशैली उनकी दुर्गति की बड़ी वजह रही।

उमेश चतुर्वेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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