कोविड-19 के जवाब में मार्च 2020 के आखिरी हफ्ते शुरू हुए पूर्ण लॉकडाउन के दौरान हमने कुछ ऐसे शब्द पहली बार आम चलन में आते देखे, जो इससे पहले दुनिया के अधिकांश देशों की तरह हमारे लिए भी लगभग अजनबी थे। क्वारंटीन और आइसोलेशन जैसे पद इससे पहले सामान्यत: यातना देने के अर्थ में इस्तेमाल किए जाते थे। वैसे कोविड-19 की आपदा में भी ये शब्द अकेलेपन, आशंका और उससे उपजी यातना का ही संदर्भ लिए हुए हैं। जब आप अपने ही घर में सिमटे हैं और सारी गतिविधियां ठप हैं तो मानवीय साहचर्य और संवाद की कल्पना कैसे कर सकते हैं? लेकिन एक वरदान की तरह यह संभव हुआ और तकनीक ने इसे एक जीवंत वास्तविकता बना दिया। फेसबुक, यू-ट्यूब और अन्यान्य आभासी माध्यमों पर लाइव प्रोग्रामों का यही ठोस परिप्रेक्ष्य है। साहित्य में लाइव प्रोग्राम बड़े आकर्षण के साथ शुरू हुए। आरंभ में इनका एक अपनी ही तरह का ग्लैमर था जिसके कारण भी शायद वक्ता कुछ अतिरंजित बोल जाता था। इस क्रम में हिंदी साहित्य के इतिहास पर पूर्वाग्रह और अपवर्जन के ऐसे सपाट आरोप लगे जो सतही सामान्यीकरणों की उपज थे। हिंदी कविता द्वारा साहित्य की राजनीति और कविता का वर्तमान संवाद शृंखला में हिंदी कविता में आठवें दशक के कवियों के वर्चस्व की शिकायत की गई। ज्यादातर कविता को पश्चिमी प्रभाव से प्रेरित बताया गया और छंद की वापसी की अपील भी की गई। कुछ लोगों ने विमर्श को गंभीर मोड़ देने के भी प्रयास किए। लेकिन ऐसा लगा कि इस माध्यम में बहस के बुलबुले जरा जल्दी ही नीचे बैठ जाते हैं। बहरहाल, राजकमल प्रकाशन ने अनेक महत्वपूर्ण रचनाकारों की रचनाओं के साथ उनसे संवाद प्रस्तुत किया।
बोधि प्रकाशन ने करीब दो महीने दैनिक प्रस्तुति की ऐसी मुहिम चलाई जिसमें छह दिन रचनाकार अपनी रचना-प्रक्रिया और रचनाएं प्रस्तुत करते थे और सातवें दिन इन रचनाकारों पर समीक्षात्मक टिप्पणी की जाती थी। इससे बड़ी संख्या में लोग जुड़े। समकालीन जनमत ने रचनाकारों के प्रस्तुतीकरण के अतिरिक्त कई मुद्दा आधारित संवाद आयोजित किए। हिंदी के शिखर आलोचक नामवर सिंह के गुजरने के बाद उनका पहला जन्म दिवस इसी बीच आया। उनकी स्मृति में हुए लाइव कार्यक्रमों में उनके रचनात्मक अवदान की पड़ताल के प्रयास किए गए और उनसे जुड़े संस्मरण प्रस्तुत किए गए। आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल ने नामवर जी पर जिस तरह की गंभीर चर्चा की, उसकी व्यापक सराहना हुई। कवि-विचारक अशोक वाजपेयी ने अलग-अलग मंचों से हिंदी के यशस्वी आलोचक देवीशंकर अवस्थी और रंग-आलोचक नेमिचंद जैन पर केंद्रित व्याख्यान दिए। ये इतने सुचिंतित और व्यवस्थित हैं कि इन्हें भुला पाना संभव नहीं है। जुटान ने साहित्य में प्रतिरोध के स्वर और एकजुटता की चुनौतियों पर संवाद शृंखला से देश के अनेक रचनाकारों, बुद्धिजीवियों को जोड़ा और जीवंत संवाद खड़ा किया। शैक्षिक क्षेत्र में सक्रिय कई फेसबुक समूहों ने अपने लाइव कार्यक्रमों में शिक्षा के अतिरिक्त अन्य सृजन-विधाओं के लोगों को जोड़ा। जनसरोकार मंच, शैक्षिक दखल, कला-चर्चा, शैक्षिक आगाज और शैक्षिक सरोकार मंच ऐसे ही सक्रिय समूह हैं जिनमें साहित्य के अलावा रंगमंच और पेंटिंग से जुड़े लोगों ने भी शिरकत की है। रंगमंच से जुड़ी संवाद की लाइव शृंखला मेरा मंच बहुत महत्वपूर्ण रही है।
इसमें रंगमंच के विभिन्न पहलुओं से संबद्ध अनुभवी और प्रतिष्ठित हस्तियों ने अनौपचारिक अंदाज में अपने अनुभव देखने-सुनने वालों से साझा किए। हिंदी ही नहीं, किसी भी भाषा के रंगमंच में दिलचस्पी लेने वालों के लिए यह एक अभूतपूर्व अनुभव है। इसी के साथ एक और प्रक्रम का उल्लेख यहां जरूरी हो जाता है। अस्मिता ग्रुप समकालीन रंगमंच में अपनी स्वतंत्र और अर्थवान पहचान रखता है। इसके जरिए निर्देशक अरविंद गौड ने समकालीन रंगमंच को नया तेवर और अभिव्यक्ति-मुहावरा दिया है। अस्मिता ने हर दिन अपने किसी नाटक की लाइव/ यू ट्यूब रिकॉर्डिंग के प्रसारण से बड़े दर्शक वर्ग तक अपनी पहुंच बनाई। ऐसे ही कुछ दूसरे नाट्य समूहों की भी प्रस्तुतियां हुईं। नए रंगकर्मियों के लिए सीखने के लिहाज से इससे समृद्ध उपक्रम भुला और क्या हो सकता है। उन्वान युवा लोगों द्वारा संचालित समूह है। इसने युवा रचनाकारों की रचनाशीलता को मंच देने का काम किया है। उन्वान के शनिवार-रविवार के विशेष कार्यक्रमों में किसी बड़े रचनाकार से युवाओं के समक्ष बातचीत आयोजित की जाती है। इसमें साहित्यकारों के अतिरिक्त रंगमंच, सिनेमा और आलोचना जैसे क्षेत्रों से भी वक्ताओं को आमंत्रित किया गया है।
आइडिया कम्युनिकेशंस की ओर से आयोजित हिंदी, उर्दू, अवधी और भोजपुरी कवियों-शायरों का घर बैठे साझा साप्ताहिक लाइव मुशायरा/कवि सम्मेलन जश्न-ए-चरागां इस बीच दर्शकों के बीच काफी सराहा गया है। स्त्री-काल और पाखी पत्रिकाएं अभी अपने मंचों पर मुद्दा आधारित समूह-चर्चाएं आयोजित कर रहे हैं। निश्चय ही यह ऐसे लाइव प्रोग्रामों का संपूर्ण विवरण नहीं है। सिर्फ इन कार्यक्रमों की दशा-दिशा की विहंगम झलक प्रस्तुत करने की कोशिश है। इन कार्यक्रमों को लेकर बेशक कट उक्तियां भी कही जाती हैं। इनकी खिल्ली उड़ाई जाती है। फिर भी नित नए लाइव प्रोग्राम शुरू हो रहे हैं हालांकि उन्हें सुनने-देखने वालों की संख्या में कमी आ रही है। जाहिर है, इनका आकर्षण शुरू जैसा नहीं रह गया है। इनकी बड़ी संख्या और कोलाहल से अराजकता जैसी स्थिति बन रही है। तो क्या यह उभार जल्द ही समाप्त हो जाएगा? ऐसा लगता नहीं है क्योंकि यही सब कमियां फेसबुक और यू ट्यूब के नेटवर्क में रही हैं और वे लगातार आगे ही बढ़ते गए हैं। वहां बहुत कुछ कूड़ा-कचरा है तो उसकी शक्ति और संभावनाएं भी हैं। अनुमान यही है कि आभासी माध्यम की ये हलचलें जाने के लिए नहीं आई हैं।
राजाराम भाटू
(लेखक साहित्य क्षेत्र से जुड़े हैं, ये उनके निजी विचार हैं)