मुश्किलों के इस दौर में रमजान के सबक

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कोरोना संकट के बीच ही रमजान का महीना आ गया। पहले ही कानून की अवहेलना और स्वाथ्यकर्मियों पर हमलों की खबरें चर्चा में हैं और सरकार अध्यादेश लाकर ऐसे उपद्रवियों से कठोरता से निपटने का एलान कर चुकी है, मगर डंडे के जोर से होश में आए भी तो क्या!

असल में रमजान का उद्देश्य ही संयम, संतुष्टि और अनुशासन सिखाना है। यह अलग बात है कि भारतीय उपमहाद्वीप में इस महीने को इबादत से ज्यादा त्योहार और जश्न के रूप में मनाया जाता रहा है। कोरोना ने अनुशासित रहने, कानून व्यवस्था का पालन करने और समाज व राष्ट्र के प्रति अधिक जिम्मेदार बनने का मौका दिया है। इस अवसर को किसी प्रकार हाथ से न जाने दिया जाए। याद रहे, जाहिलियत और जानकारी का अभाव उतना बड़ा दोष नहीं जितना उस जिहालत पर अड़े रहने का उपदेश देना। अजीब पाखंड है कि एक ओर मौलवी विज्ञान और आधुनिक शास्त्रों की पढ़ाई को कुफ्र बताते हैं, दूसरी ओर बड़बोलेपन में यह भी कहते फिरते हैं कि ‘असल विज्ञान तो हमारे पास था जिसे गोरे हम से चुरा ले गए।’ वे यह नहीं बताते कि जिन वैज्ञानिकों और आधुनिक बुद्धिजीवियों पर आज घमंड कर रहे हैं, उनको अपने दौर में न केवल अपमान सहना पड़ता था बल्कि कुफ्र के फतवे भी झेलने पड़ते थे।

इस्लाम के अनुयायी बहुत तेजी से विश्व के एक बड़े हिस्से में फैले क्योंकि वह जमाना तीर, तलवार और घोड़ों का था। उन जंगजुओं के हाथों में बल था और मन में नैतिकता की शक्ति भी। मगर दौलत और सत्ता के नशे ने उनसे पहले नैतिकता छीनी और फिर सभ्यता की सीढ़ियां चढ़ रहे समाज में उनकी हिस्सेदारी। रही-सही कसर धर्मगुरुओं ने पूरी कर दी। उन्होंने समाज को आधुनिकता से दूर अंधविश्वास और फिक्ह (धर्मशास्त्र) के ऐसे मायाजाल में फंसाया जिससे निकलना असंभव दिखाई देता है। आज भी जब लाखों लोग के सामने पलायन और भूख का संकट है, ये खजूर और गोश्त की उपलब्धता की मांग कर रहे हैं।

अपने मसलक और पंथ को श्रेठ और दूसरों को काफिर व पथभ्रष्ट बताना अनुयायिओं पर धर्म-सत्ता को बनाए रखने में तो सहायक हो सकता है, लेकिन आज के सभ्य समाज में ऐसी बातों के लिए स्थान नहीं है। ऐसी सारी बातें मदरसों के पाठ्यक्रम और मौलवियों के भाषणों से खुरच- खुरच कर निकालनी होंगी। हर मसले में पुरानी घिसी-पिटी टीका की जगह कुछ बातें विज्ञान, अभियांत्रिकी, प्रौद्योगिकी, अर्थशास्त्र और आयुर्विज्ञान के आलिमों की भी मानी जाएं। जब कुरान हर पाठक से स्वयं विचार करने को कहता है तो क्या ही अच्छा हो कि वे रोजमर्रा की बातों में अपनी अक्ल-इ-सलीम (विवेक) को भी काम पर लगाएं। आखिर अक्ल-इ-सलीम का दरवाजा क्यों इस कदर बंद कर दिया गया है कि खजूर से इफ्तार करने, मोबाइल पर कुरान पढ़ने जैसे विषयों पर भी फतवे लिए और दिए जा रहे हैं? रमजान ही नहीं आम दिनों में भी मजहब की नुमाइश कोई अच्छा असर नहीं छोड़ती है। सड़कों, स्टेशनों या सार्वजनिक स्थानों पर सामूहिक नमाज पढ़कर जितना आप खुदा को खुश नहीं करते उससे ज्यादा उसके बंदों को कष्ट पहुंचाते हैं।

भारत के मुसलमानों में एक विषाणु सब से अधिक पाया जाता है और वह है सस्ती भावुकता और उत्तेजना। बेशक, अल्पसंख्यक मनोविकृति एक सचाई है, परंतु हर समय किसी साजिश की बू सूंघना भी उचित नहीं। कुछ तो इतने भावुक हैं कि अपनी भड़ास निकालने के वास्ते बाकायदा पैसे देकर शायरों और आग उगलने वाले वक्ताओं को बुलाते हैं। यह विकृत मानसिकता और नकारात्मक तरीका समस्याओं के निदान की राह का सबसे बड़ा रोड़ा है। कोरोना काल में पड़ने वाले रमजान का यही सबक है कि आस्था और व्यवस्था के बीच संतुलन बना रहे। कानून-व्यवस्था का पूर्णतः अनुसरण किया जाए। तटस्थता के बजाय स्वयं को देश और सभ्य समाज के हित में उपयोगी साबित किया जाए और वह भी संपूर्ण आधुनिकता, उदारता, कर्मठता और नैतिकता के साथ, क्योंकि ‘दौड़ो जमाना चाल कयामत की चल गया’।

आसिफ़ आज़मी
(लेखक फिल्मकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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