फीस वृद्धि के खिलाफ जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों ने सोमवार को संसद मार्च निकाला। जेएनयू गेट पर उन्हें रोकने को लगे बैरिकेड तोड़ दिए गए। चंद घंटो में संघर्ष इतना हिंसक हो गया कि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में चार मेट्रो स्टेशन बंद करने पड़े। अराजकता की स्थिति बनी रही। आम लोग किस कदर परेशान हुए होंगे इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। छात्रों की मांग जायज है। बिना समिति गठित किये आनन-फानन में तकरीबन 300 फीसदी फीस में इजाफा छात्रों के लिए कितनी बड़ी दिक्कत खड़ी करने लायक अमाउंट है यह इस तथ्य से समझा जा सकता है कि एक बड़ी संख्या गरीब परिवारों से जेएनयू में पढऩे आए बच्चों की होती है। ऐसे बच्चे जिनके अभिभावक लगभग 5000 हजार रुपये से लेकर 12 हजार के बीच कमाते हैं।
अब ऐसी स्थिति में हॉस्टल, मेस की फीस में भी वृद्धि कितनी पीड़ादायक होगी अंदाजा लगाया जा सकता है। इजाफे के अलावा भी इन बच्चों की शिकायतें हैं। मसलन परिसर के भीतर वाचनालय की टाइमिंग भी फिक्स किए जाने पर ऐतराज है। होना भी चाहिए। एक अत्यंत आम पृष्ठभूमि से पढने आए बच्चों के साथ यह एक तरह से नाइंसाफी है। लेकिन अपनी जायज मांग के लिए छात्र-छात्रों ने परिसर के भीतर अपनी महिला शिक्षक से दुव्यहार किया और बहार जो हिंसा का प्रदर्शन किया वो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं ठहराया जा सकता। पढ़ऩे-लिखने वालों से तो यह उम्मीद नहीं की जा सकती। अपनी बात कहने के लिए सौम्य और गांधीवादी रास्ता भी तो अपनाया जा सकता था। दूसरी तरफ सक्षम विश्वविद्यालीय प्रसाशन को भी फीस वृद्धि के लिए पहले इसके पडने वाले प्रभाव पर विचार-विमर्श कर लेना चाहिए था। एक समिति गठित होती, उसमें छात्र प्रतिनिधि भी शामिल होते और उसके बाद संभव था एक सर्वानुमति बन जाती।
किन वजहों से आनन-फानन में फैसला हो गया यह सवाल तो पूछा जाना चाहिए। जेएनयू देश का प्रतिष्ठित संसथान है। इसकी खूबी ह्यूमिनिटीज और सोशल साइंसेज है जिसने देश को एक से एक स्कालर दिए है। जेएनयू के छात्रों का आरोप है कि 2014 से केंद्र में सत्ता बदलते ही उनका प्रीमियर संसथान निशाने पर है ऐसे संस्थान की छवि देश भर में टुकड़े- टुकड़े गैंग वाली बना दी गई है। ऐसे काल्पनिक सवाल खड़े किए जा रहे हैं जिसका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं है। सरकार कहती है कि जेएनयू अध्ययन-अध्यापन की जगह सियासी अखाड़ा बन गया है। यह सच है कि तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी के हाथों 1969 में इस संस्थान की शुरुआत हुई थी। उस समय कोशिश थी हर विचारधारा के लोगों का यह केंद्र बने लेकिन वस्तुत: वामपंथियों का वर्चस्व हो गया। अब बदली राजनीतिक परिस्थिति में उसी वर्चस्व को बचने और तोडऩे की लड़ाई चल रही है। सच जो भी हो, लेकिन इससे बचा जा सकता था।