महाराष्ट्र की सियासत में जोड़तोड़ का बाजार गर्म

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महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव हुए एक माह बीत रहा है लेकिन अभी तक वहां कोई सरकार नहीं बनी है। राष्ट्रपति शासन लगा हुआ हैं। देश के इतने प्रभावशाली प्रांत में यह गाड़ी कब तक धकेगी ? यह तो निश्चित ही लग रहा है कि जिन दो दलों को सबसे ज्यादा सीटें मिली हैं, वे सरकार नहीं बना रहे हैं याने महाराष्ट्र की जनता के अभिमत को तिलांजलि दे दी गई है।

अब यदि कम सीटें मिलनेवाले दल राकांपा और कांग्रेस, शिवसेना के साथ मिलकर सरकार बनाना चाहते हैं तो बना लें। ऐसा अप्राकृतिक सहवास पहले भी कनार्टक, उप्र और बिहार में कई दल कर चुके हैं। ये बात दूसरी है कि ऐसी बेढंगी सरकारें न तो पांच साल चल पाती हैं और जितने दिन भी टिकती हैं, उतने दिन भी वे ठीक से काम नहीं कर पाती हैं।

अब शिव सेना के साथ सरकार बनाने में तीन समस्याएं हैं। पहली यह कि कांग्रेस अंदर घुसकर समर्थन दे या बाहर रहकर ? यदि वह सरकार में शामिल होती है तो उसकी अखिल भारतीय छवि चूर-चूर होती है। दूसरी यह कि तीनों पार्टियों के मुख्यमंत्री कितने-कितने माह अपने पद पर रहेंगे ? तीसरा, किस पार्टी को कौनसे मंत्रालय मिलेंगे ? इन मुद्दों पर खींचातानी जारी है। यह खींचातानी कब तक चलेगी, कुछ पता नहीं !

शिव सेना इस वक्त सबसे ज्यादा डरी हुई है। उसने अपने सारे विधायकों को एक होटल में बंधक बना लिया है। उसे डर लगने लगा है कि कहीं थोक में दल-बदल न हो जाए। शिव सेना के कई वरिष्ठ विधायकों को शुरु में ही यह बात खलने लगी थी कि उद्धव ठाकरे के बेटे आदित्य को मुख्यमंत्री बनाया जा रहा है।

ऐसी अनिश्चय की स्थिति में यदि महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लग जाए तो कोई आश्चर्य नहीं है। अधर में लटके शासन से तो अच्छा है कि वह दिल्ली की खूंटी पर लटका रहे। फिर भी सरकार न बने तो सबसे अच्छा विकल्प यह है कि महाराष्ट्र विधानसभा को भंग करके दुबारा चुनाव करवाया जाए।

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लेखक वरिष्ठ पत्रकरा हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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