पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को प्रधानमंत्री बनने के सपने आ रहे हैं। उनको किसी ने प्रधानमंत्री बन जाने का सब्जबाग दिखाया है या तीन बार पश्चिम बंगाल में चुनाव जीतने के बाद उनको खुद ही गुमान होने लगा है कि वे प्रधानमंत्री बन सकती हैं? दोनों बातें संभव है। हो सकता है कि उनके चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने उनको यह सब्जबाग दिखाया हो। लेकिन मुश्किल यह है कि नब्बे के दशक की राजनीतिक अस्थिरता के बाद भारत में यह अघोषित नियम बन गया है कि लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी का नेता ही प्रधानमंत्री बनेगा, चाहे लोकसभा कितनी भी त्रिशंकु क्यों न हो। इसलिए ममता की राह बहुत आसान नहीं होने वाली है।
उन्हें अपने जैसे पुराने क्षत्रपों की ऐसी ही महत्वाकांक्षाओं से भी सीख लेनी चाहिए। एक जमाने में अनेक नेताओं को उनको सलाहकारों ने ऐसे सब्जबाग दिखाए थे। लालू प्रसाद को लगता था कि वे प्रधानमंत्री बन जाएंगे तो मुलायम सिंह यादव ने भी ऐसी ही आकांक्षा पाली थी। ये दोनों नेता तो अब हाशिए पर चले गए हैं लेकिन शरद पवार अब भी उम्मीद लगाए बैठे हैं। वे 1991 से इसके सपने देख रहे हैं। कांग्रेस में रह कर भी उन्होंने इसका प्रयास किया और कांग्रेस से बाहर निकल कर भी कोशिश की। चंद्रबाबू नायडू ने भी किसी जमाने में प्रधानमंत्री बनने का सपना देखा था। अभी अरविंद केजरीवाल भी इस प्रयास में लगे हैं। ये सब समकालीन नेताओं की मिसालें हैं। पुराने नेताओं की बात होगी तो यह सूची बहुत लंबी हो जाएगी।
लेकिन ये सब पीएम तो तब बनें जब विपक्ष में एकता हो। सब दिल्ली आकर एक होने का नाटक करते हैं और राज्यों में अलग- थलग। कांग्रेस पार्टी ही असम में आगे के चुनावों में अकेले लडऩे की तैयारी कर रही है। कांग्रेस के जानकार सूत्रों के मुताबिक तृणमूल कांग्रेस के राज्य में सक्रिय होने और कांग्रेस की बड़ी नेता सुष्मिता देब के पार्टी छोड़ कर तृणमूल में जाने के बाद कांग्रेस ने नई रणनीति बनाई है। इसके तहत पार्टी अपने को पूरे प्रदेश में मजबूत करेगी। संगठन के स्तर पर कांग्रेस को मजबूत करने के लिए पहला कदम यह उठाने का फैसला हो सकता है कि पार्टी महाजोत से बाहर हो जाए। गौरतलब है कि यह महाजोत इस साल अप्रैल- मई में हुए विधानसभा चुनाव से ठीक पहले बना था, जिसमें कांग्रेस के अलावा बदरूद्दीन अजमल की पार्टी ऑल इंडिया यूडीएफ और हागरामा मोहिलारी की बीपीएफ के साथ साथ दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां और एकाध प्रादेशिक पार्टियां शामिल थीं।अखिल गोगोई के रायजोर दल और ऑल असम स्टूडेंट यूनियन की पार्टी असम क्षेत्रीयता परिषद की वजह से महाजोत को नुकसान हुआ।
इस गठबंधन ने भाजपा विरोधी वोट काट लिए, जिससे कांग्रेस का गठबंधन नहीं जीत सका। इस बीच खबर है कि अखिल गोगोई की पार्टी का तृणमूल कांग्रेस में विलय हो सकता है। आने वाले दिनों में कांग्रेस के भी कई नेता पार्टी छोड़ेंगे। चुनाव के बाद दो विधायक पार्टी छोड़ कर भाजपा में जा चुके हैं। तभी कांग्रेस ने पूर्व मुख्यमंत्री तरूण गोगोई के बेटे गौरव गोगोई को संगठन में नई जिम्मेदारी देकर उनको भविष्य का चेहरा बनाया है। वैसे भी कांग्रेस अपने ही जाल में उलझी पड़ी है। कांग्रेस पार्टी ने गुजरात का फैसला दो साल से अटका रहा है। दो साल से कांग्रेस पार्टी के प्रदेश कमेटी नहीं बनी है। इसी तरह मार्च में स्थानीय निकाय चुनावों में कांग्रेस के बेहद खराब प्रदर्शन के बाद प्रदेश अध्यक्ष अमित चावड़ा और विधायक दल के नेता परेश धनानी दोनों ने अपना इस्तीफा आलाकमान को भेज दिया पर पिछले पांच महीने से उस पर भी फैसला नहीं हो पाया है।
अमित चावड़ा प्रदेश अध्यक्ष हैं और हार्दिक पटेल कार्यकारी अध्यक्ष हैं। उनके अलावा परेश धनानी विधायक दल के नेता हैं। इनमें से भी चावड़ा और धनानी ने इस्तीफा भेजा है और उन दोनों के नई नियुति तक काम करते रहने को कहा गया है। सोचें, चावड़ा को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया तो वे प्रदेश की कमेटी ही नहीं बना सके तब तक उनका इस्तीफा भी आ गया। ध्यान रहे गुजरात राहुल गांधी की पहली प्रयोगशाला है, जहां उन्होंने तमाम पुराने नेताओं को छोड़ कर नए नेताओं की टीम बनाई थी। वह प्रयोग बुरी तरह से फेल रहा है लेकिन फिर भी संगठन को ठीक करने का प्रयास नहीं हो रहा है। गुजरात में कांग्रेस के पास भरत सिंह सोलंकी, शति सिंह गोहिल, अर्जुन मोडवाडिया, तुषारभाई चौधरी जैसे पुराने नेता, पूर्व केंद्रीय मंत्री और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष हैं। लेकिन कांग्रेस की गाड़ी अटकी हुई है।
हरिशंकर व्यास
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)