भारतीय दिंदुओं छोड़ो नकाब, बनो सत्यवादी !

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याद करें जेएनयू में नकाब पहने, लाठी लिए चेहरों को! इसकी इमेज भी बूढ़ी अम्मा के धरने की तरह दिमाग में अमिट है। सो, सोचें नकाब पहने हिंदुओं पर! आप इस नकाब के पीछे अमित शाह को बूझ सकते हैं तो नेहरू को भी! मतलब हिंदू को! हां, नकाब आजाद भारत के सत्य पर सत्तावान हिंदुओं, हिंदू राजनीति का आवरण, पर्दा, झूठ का लेप है। भारत राष्ट्र-राज्य का उद्घोष वाय भले सत्यमेव जयते है लेकिन 15 अगस्त 1947 से हम लगातार इस झूठ में जीये हैं कि हम हिंदू नहीं, बल्कि सेकुलर हैं! सेकुलर की नकाब ने मुसलमान को बरगलाया तो हिंदू को भी बरगलाया! हम हिंदुओं की त्रासदी है जो हकीकत को नकाब में या कि अंधे को सूरदास कह कर छुपाते हैं। हिंदू हैं, हिंदू धर्मावलंबी हैं लेकिन यह कहते हुए फलसफा बनाते हैं कि यह धर्म नहीं, बल्कि जीवन जीने की पद्धति है! सदियों क्योंकि हम तलवार की धार में जीये हैं इसलिए अपना हिंदूपना छुपा कर कोऊ नृप हो हमें का हानी के नकाबी फलसफे पहने रहे हैं। आजाद भारत के बाद गांधी, नेहरू, पटेल सबका यहीं व्यवहार था।

मैं बार-बार यह तथ्य-सत्य याद कराता हूं कि संविधान सभा ने, संविधान के मूल रूप में धर्मनिरपेक्ष, सेकुलर शद नहीं था। इतिहास-धर्म के गर्भ से बच्चा हिंदू जन्मा था लेकिन नामकरण और जन्म संस्कार के पंडित-पुरोहितों उर्फ संविधान निर्माताओं ने उसे भरत राजा का वंशज नाम दे कर इतिश्री की। उसे हिंदू घोषित करना जरूरी नहीं माना। पर सेकुलर भी नहीं बताया। क्या वह हिंदू असलियत, सत्य को छुपाना नहीं था? जैसे मैंने पहले लिखा है कि भरत वंश में जब नामकरण भारत है तो गांधी, नेहरू, पटेल, संविधान निर्माताओं ने जरूरी नहीं समझा कि दुनिया के जन्म रजिस्टर में नाम के साथ धर्म भी लिखाया जाए! उस नाते दुनिया के रजिस्टर में भारत न हिंदू और न सेकुलर हुआ, बल्कि बतौर लोकतांत्रिक गणतंत्र दर्ज हुआ। और लोकतांत्रिक गणतंत्र की व्यवस्था क्योंकि बहुसंख्यक लोगों के धर्म, विचार को लिए होती है तो हिंदू पहचान अपने आप थी। बावजूद इस सत्य के नेहरू के आइडिया ऑफ इंडिया के बुद्धिजीवियों ने सेकुलर डेमोक्रेसी की नकाब में भारत को पेश करने का कैंपेन चलाया।

इनकी नकाब तब सेकुलर रूप में अधिकृत हुई जब इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान को मार बांग्लादेश बनाया और दिल्ली के जब मुस्लिम बस्तियों में बुलडोजर चल रहे थे तो मुसलमानों को व अपने आपको भरमाने के लिए संविधान में सेकुलर शद दर्ज किया गया! हां, दहलाने वाला तथ्य है कि इमरजेंसी के अंधेरे में सेकुलर शद संविधान में घुसेड़ा गया। ध्यान रहे वह वक्त मुसलमानों पर गाज गिरने का भी था। संजय गांधी रूखसाना पुरानी दिल्ली के तुर्कमान गेट पर, मुस्लिम बस्तियों पर बुलडोजर चलवा रहे थे। संजय गांधी का पूरे देश में मुसलमानों की नसबंदी का महाअभियान चला हुआ था। इंदिरा गांधी दुर्गा स्वरूप थीं। सोचें उस स्थिति में संविधान संशोधन से सेकुलर का नकाब संविधान को दिया गया। कोई माने या न माने पर इमरजेंसी के वक्त में नसबंदी टारगेट में मुसलमान जैसे था, वह जैसे छुपते-भागते हुए था उसके आगे मोदी-शाह का वक्त तो मुसलमान का स्वर्णकाल है! आज के लंगूरी हिंदू तो तलाक जैसी बातें लिए हुए हैं जबकि इंदिरा-संजय ने तो मुसलमान की नसबंदी, आबादी घटाने का महाअभियान चलाया था मगर सेकुलर का नकाब अपनाते हुए! क्या मैं झूठ बोल रहा हूं?

सचमुच देश विभाजन की वजह और उसका वक्त हो, जिन्ना बतौर पीएम मंजूर नहीं, सोमनाथ में मंदिर निर्माण से लेकर इमरजेंसी में मुसलमानों की नसबंदी के मिशन के बीच में सेकुलर नकाब जैसे फैसले वे तथ्य हैं, जिनसे प्रमाणित है कि चेहरे पर नकाब भले कई हों लेकिन असलियत में हम सब जानते हैं कि हमारी आत्मा क्या है, हमारा धर्म क्या है? और हम मुसलमान पर क्या नजरिया लिए हुए हैं। हिंदू भारत वैसा ही है जैसे मुस्लिम मलेशिया है। मतलब बहुसंख्यक की वर्चस्वता, उदारता में अल्पसंख्यक का जीना। और यह मनोविश्व पूरी दुनिया में मान्य है, वैध है, राष्ट्र-राज्य की आधुनिक धारणा के कायदे-तौर-तरीकों में सौ टका फिट। बावजूद इसके हममें सत्यवादी होने की निर्भीकता, स्वार्थहीनता नहीं है। नकाब याकि झूठ में जीना हमारा स्वभाव है। दरअसल हजार साल की गुलामी और इतिहास में मुसलमानों के विजेता, बादशाह होने की हकीकत में हम हिंदुओं की, गांधी-नेहरू-पटेल, कांग्रेस, हिंदू राजनीति में हिम्मत ही नहीं हुई जो जिन्ना से, मुसलमान से आंख से आंख मिला कह सकें कि बीसवीं सदी का सत्य, वक्त का तकाजा लोकतंत्र है और लोकतंत्र में बहुसंख्या, उसकी इच्छा, उसके निर्णय में ही जीया जाता है।

हिंदू यदि बहुसंख्या में है तो देश हिंदू होगा! हिंदू के छाते में ही सर्वधर्म समभाव है। (जैसे मलेशिया के मुस्लिम छाते में) हिम्मत नहीं तो नकाब पहनना जरूरी। इतिहासजन्य तथ्य है कि गुलामी की कुंद बुद्धि, भक्ति-झूठ में जीने वाली कौम वह निर्भीकता लिए हुए नहीं होती जो सत्य बोल सके, सत्य व्यवहार कर सके, सत्य जी सके। 1947 से ले कर आज तक हम लगातार झूठ और नकाब के पीछे जीये हैं।
फिर भले वह राष्ट्र के धर्म का मामला हो, विदेश नीति, अर्थ नीति का मामला हो या शिक्षा, सत्ता, वोट और ताकत का मामला हो। सोचें, जेएनयू में नकाब पहने लाठीधारी चेहरों पर! बताते हैं कि ये हिंदुवादी थे और इन्हें कम्युनिस्टों को सबक सिखाना था। उफ! कितना शर्मना·! सत्ता नरेंद्र मोदी और अमित शाह की और बावजूद इसके नकाब पहनना! आज पूरा तंत्र मोदी-शाह उर्फ हिंदू राष्ट्रवादियों के हाथ में है। प्रशासन, वीसी, पुलिस सब कुछ भाजपा-संघ वालों के पास और बावजूद इसके नकाब पहन कर कथित देशद्रोहियों को मारना! सत्ता की इतनी ताकत के बावजूद संघ-भाजपा- एबीवीपी याकि हिंदू राष्ट्रवादियों में इतना भी साहस, नैतिक बल, बाहुबल नहीं, जो बिना नकाब के वामपंथियों, कम्युनिस्टों या सेकुलर या कथित देश के दुश्मनों, टुकड़े-टुकड़े गैंग से चौड़े धाड़े, अपने चेहरों को बतलाते हुए भिड़ा और लड़ा जाए।

जाहिर है चोरों की तरह नकाब पहन कर अलग-अलग तरह की भगवा सिद्धि की कोशिश चोरी-छुपे, नकाब के झूठे मंतव्यों से है। नेहरू-कांग्रेस के वक्त में भी नकाब थी तो मोदी-शाह के वक्त में भी नकाब है। जम्मू-कश्मीर के सत्य को तब अनुच्छेद 370 की नकाब में दबाया गया तो अब उसे हटाने के बाद नया झूठ है कि सब तो ठीक है! एप्रोच नकाब की और उसके पीछे के मंतव्य वोट राजनीति का टुच्चापन लिए हुए। ध्यान रहे इसी कॉलम में मैंने अनुच्छेद 370 की समाप्ति के बाद विश्व कूटनीति, संयुक्त राष्ट्र में दुनिया को मैसेज में इमरान खान बनाम नरेंद्र मोदी के भाषण के संदर्भ में लिखा था कि भारत को बेबाकी से दुनिया की आंख में आंख मिला कर सत्य बोलना चाहिए। जब इमरान खान जम्मू कश्मीर पर इस्लाम का वैश्विक झंडा लिए हैं तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को विश्व जनमत से दो टूक सच बोलना चाहिए। लेकिन संयुक्त राष्ट्र में नरेंद्र मोदी का भी वैसा ही गोलमोल अंदाज, वहीं भाषा और वैसे ही नेहरू कालीन जुमले थे कि भारत ने युद्ध नहीं, बल्कि बुद्ध दिया! क्यों संयुक्त राष्ट्र में बुद्ध का नकाब या क्यों जेएनयू में नकाब? इसलिए कि प्रवृत्ति है जो हकीकत से मुंह मोड़, इधर-उधर की बातों से बरगलाया जाए।

सीधे अपने आपको सत्य की अग्नि में तपाया नहीं जाए, सत्य की अग्नि परीक्षा से तौबा किए रखे और चोरी छुपे, नकाब के पीछे से उल्लू साधे जाएं! सीधी बात नहीं कि भारत हिंदू घर है तो उसका धर्म भी हिंदू है और उस नाते वह न केवल हिंदू हितधर्मी है, बल्कि हिंदू की नेचुरल शरण स्थली भी है। वैसा मुसलमान का भारत राष्ट्र-राज्य में हक नहीं है। शरणार्थी मुसलमान को नागरिकता उसकी जांच-पड़ताल, उसकी प्रकृति-प्रवृत्ति देख कर ही मिलेगी। संविधान की किसी धारा का सीएए में उल्लंघन है और सुप्रीम कोर्ट ऐसा कहता है तो उस पर हम संसद में विचार कराएंगे। और जहां तक भारत में रह रहे मूल मुसलमानों का सवाल है उनकी नागरिकता वैसे ही अक्षुण्ण है जैसे हिंदू की है। राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) बनेगा तो उसे सरकार खुद अपने डाटाबेस से बनाएगी या यदि नागरिकों से दस्तावेज लिए गए तो हिंदू से भी लिए जाएंगे और मुसलमानों से भी लिए जाएंगे। या ऐसे सत्य बोलना राष्ट्र-व्यवहार नहीं होना चाहिए? ऐसे सत्य के साथ नरेंद्र मोदी डोनाल्ड ट्रंप या दुनिया से बात करें या अमित शाह बाकायदा शाहीन बाग जा कर बूढ़ी अम्माओं से संवाद करें तो पहाड़ टूट पड़ेगा या उससे सत्य में जीना, सोचना और समझना भारत का संभव हो सकेगा?

मगर न सत्य बोलना और न चेहरा दिखाना है और अलग-अलग तरह के नकाब, जुमलों, पैंतरों, सोशल मीडिया की लंगूरी, झूठी ब्रांडिंग-मार्केटिंग और झूठे नैरेटिव में भय, टकराव में आग सुलगाना अपना राष्ट्रधर्म व शासन पद्धति! ताकि वोटों की गोलबंदी हो और कभी मुसलमान को तो कभी हिंदू को मूर्ख बना कर चुनाव जीता जा सके। तभी पंद्रह अगस्त 1947 से शुरू सफर का सत्य है कि न भारत बना और न हिंदू बना और न मुसलमान बना। सवा सौ करोड़ लोगों की चेतना, उसकी बुद्धि के सत्यवादी विचारमना बनने का तो खैर सवाल ही नहीं उठता! सो, जान लिया जाए कि कौम की, देश की, देश के नियंताओं की, बूढ़ी अम्मा की, जेएनयू के नकाबपोशों की और इस भूमि को जन्म-पुण्य भूमि मानने वाले हिंदू बाशिंदों की प्राथमिक जरूरत सत्य सोचने, मानने, बोलने और व्यवहार की है! हमें झूठ और डर के नकाबों को छोड़ कर निर्भीक बनना होगा। नहीं तो कोई सिद्धि नहीं है।

हरीशंकर व्यास
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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