भारतीय जनता पार्टी के दोनों शीर्ष नेता क्या खतरे की घंटी सुन पा रहे हैं या नागरिकता कानून के शोर ने उनके कान बंद कर रखे हैं? एक तरफ नागरिकता कानून का देशव्यापी विरोध है और विरोधियों के खिलाफ भाजपा समर्थकों की नारे लगाती भीड़ है, जिसका नारा है- देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को, और दूसरी ओर झारखंड के चुनाव नतीजे की गूंज है। अगर नागरिकता कानून के शोर को चीर कर झारखंड में बजी खतरे की घंटी की आवाज मोदी और शाह के कानों तक पहुंची है तो उनको इस आवाज को गंभीरता से लेना होगा। झारखंड और इससे पहले महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव नतीजों के कुछ सबक हैं, जिसे अगर भाजपा नहीं समझती है तो उसके लिए आने वाले दिनों में और मुश्किल होगी।
सबसे पहला सबक यह है कि भाजपा को सहयोगियों की जरूरत है। सहयोगी पार्टियों के बगैर ज्यादातर राज्यों में भाजपा के लिए चुनाव जीतना और सरकार बनाना मुश्किल है। पहले महाराष्ट्र में यह बात साबित हुई और अब झारखंड में भी इसका प्रमाण मिल गया है। दोनों राज्यों में भाजपा के पास बहुत पुरानी और भरोसेमंद सहयोगी पार्टियां थीं पर दिल्ली की ओर से प्रदेश में चुन कर बैठाए गए नेताओं के रवैए से परेशान महाराष्ट्र में शिव सेना ने और झारखंड में आजसू ने भाजपा का साथ छोड़ा और उसका नतीजा यह हुआ कि भाजपा दोनों राज्यों में सत्ता से बाहर है। हरियाणा में उसकी सरकार तभी बनी, जब उसने बाहर से एक नया सहयोगी बनाया। सो, सहयोगियों को सत्ता में साझीदारी और सम्मान दोनों मिले तभी भाजपा का कल्याण है।
दूसरा, सबक यह है कि पार्टी के जमे जमाए नेताओं को उखाड़ कर नए नेता को जमाने का प्रयास एक बार तो चमत्कार कर सकता है पर लंबे समय में वह पार्टी के लिए नुकसानदेह होगा। भाजपा सामूहिक नेतृत्व वाली पार्टी रही है, जिसका अंदरूनी लोकतंत्र किसी भी पार्टी के लिए मिसाल हो सकता है। पर पिछले साढ़े पांच साल में सबसे पहली बलि उसी की ली गई है। सामूहिक नेतृत्व की बजाय अपनी पसंद से चुने गए नेताओं के हाथ में प्रदेशों की कमान सौंपी गई और उन्हें असीमित शक्ति दी गई, जिसका उन्होंने दुरुपयोग किया। उनके ऊपर राष्ट्रीय स्तर से चेक एंड बैलेंस की कोई व्यवस्था नहीं रही। तभी भाजपा के कई पुराने और खांटी नेता पार्टी छोड़ कर गए। पार्टी में उनकी शिकायत सुनने और उसे दूर करने की कोई व्यवस्था नहीं बनाई गई।
तीसरा सबक यह है कि महाराष्ट्र की गलती से झारखंड में कोई सबक नहीं सीखा गया। महाराष्ट्र में मतदाताओं ने दूसरी पार्टियों से आकर भाजपा की टिकट से लड़े तमाम दलबदलुओं को चुनाव हरा दिया था। इसके बावजूद झारखंड में मुख्यमंत्री ने अपनी पार्टी के मंजे हुए और खांटी नेटाओं की टिकट काट कर दूसरी पार्टियों के दलबदलुओं को महत्व देकर चुनाव लड़ाया। इसका नतीजा यह हुआ कि मुख्यमंत्री रघुवर दास खुद चुनाव हारे और उनके लाए लगभग सारे दलबदलू चुनाव हार गए। मुख्यमंत्री को भी भाजपा के पुराने नेता सरयू राय ने हराया।
चौथा सबक भाजपा की हिंदू राजनीति के अंदर जाति की राजनीति के सब प्लॉट का फेल होना है। भाजपा ने 2014 के बाद बहुत कायदे से जातियों का सब प्लॉट हर राज्य में बनाया था। हर राज्य की शक्तिशाली जाति के बरक्स दूसरी जाति को तरजीह देने की राजनीति भाजपा ने की थी। इसी के तहत हरियाणा में गैर जाट, महाराष्ट्र में गैर मराठा और झारखंड में गैर आदिवासी मुख्यमंत्री बनाया। 2014 के चुनाव में प्रचार के दौरान भाजपा ने नहीं कहा था कि वह ऐसा करने जा रही है। पर चुनाव जीतने के बाद उसने यह राजनीति कर डाली। दूसरे चुनाव में जब हरियाणा और महाराष्ट्र में इस राजनीति का नुकसान हुआ था तो कायदे से उसे झारखंड में इसमें कुछ बदलाव करना चाहिए था। पर भाजपा उसी रास्ते पर चली, जिस पर चल कर उसे दो राज्यों में ठोकर खानी पड़ी थी।
पांचवां सबक यह है कि मोदी और शाह के भरोसे राज्यों की राजनीति नहीं हो सकती है। राज्यों में स्थानीय मुद्दे और स्थानीय नेतृत्व ही महत्व रखता है। अगर उसकी क्षमता और लोकप्रियता से पार्टी आगे बढ़ती है तो उसमें शाह की रणनीति और मोदी का करिश्माई व्यक्तित्व काम आ सकता है। फिलहाल भाजपा की समूची राजनीति मोदी और शाह के करिश्मे और रणनीति पर निर्भर हो गई है। तभी राज्यों में जातियों का समीकरण नहीं बनाया जा रहा है और न प्रदेश नेतृत्व की वास्तविक ताकत का आकलन किया जा रहा है।
अजीत द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं