ब्रांड मोदी को सबसे ज्यादा वोट

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पांच साल के शासन में नरेंद्र मोदी की सरकार ने सबसे ज्यादा ध्यान ब्रांड मोदी को स्थापित करने पर दिया था। यहीं उनकी जीत का सबसे बड़ा कारण भी है। भाजपा को सबसे ज्यादा वोट ब्रांड मोदी के कारण मिले हैं। इस बात को नरेंद्र मोदी और अमित शाह जानते थे, तभी उन्होंने बिल्कुल मनमाने अंदाज में उम्मीदवार बदले और टिकट बांटे। लोग इस बात पर छाती पीटते रहे कि गोरखपुर सीट पर रवि किशन को लड़ा दिया तो गुरदासपुर सीट पर सन्नी देओल को उतार दिया या छत्तीसगढ़ में सारे जीते सांसदों की टिकट काट दी। इससे नतीजों पर कोई असर नहीं हुआ। समूचा प्रचार इस बात पर हुआ कि पार्टी और उम्मीदवार को देखने की जरूरत नहीं है। कमल के निशान का बटन दबाओ तो वोट सीधे मोदी को जाएगा। तभी नीतीश कुमार जैसे क्षत्रप ने भी मोदी के नाम पर वोट मांगे और महाराष्ट्र में शिव सेना के उम्मीदवारों ने भी बाला साहेब ठाकरे की बजाय नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट मांगा।

मोदी ब्रांड की यह ताकत चुनाव से पहले हुए सर्वेक्षणों से भी जाहिर हुई थी। देश के कुछ दक्षिणी राज्यों को छोड़ दें तो लगभग पूरे देश में प्रधानमंत्री पद के दावेदारों में कोई भी मोदी के आसपास नहीं था। अप्रैल-मई में सीएसडीएस-लोकनीति के सर्वेक्षण में नरेंद्र मोदी अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी यानी राहुल गांधी से 18 परसेंटेज प्वाइंट से आगे थे। उसी समय भाजपा के समर्थक मतदाताओं में 87 फीसदी मोदी को प्रधानमंत्री देखना चाहते थे तो भाजपा की सहयोगी पार्टियों के भी 73 फीसदी लोग मोदी को पीएम बनाने के लिए वोट करना चाहते थे। सबसे हैरानी की बात है कि लेफ्ट के समर्थक 27 फीसदी और बसपा के समर्थक 16 फीसदी मतदाता भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देखना चाहते थे। सो, हैरानी नहीं होनी चाहिए, जो पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में ऐसा नतीजा आया।

सवाल है कि मोदी का यह ब्रांड कैसे लोगों तक पहुंचा और कैसे उनके दिलदिमाग में स्थापित हुआ? इसका जवाब है प्रचार के जरिए। यह महज संयोग है कि केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के तुरंत बाद एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि सरकारी विज्ञापनों में सिर्फ प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की फोटो छपेगी। सो, प्रचार सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हुआ और चूंकि ज्यादातर राज्यों में भाजपा की सरकारें बन गईं तो वहां भी मुख्यमंत्रियों के साथ साथ या उनसे ज्यादा प्रधानमंत्री का प्रचार हुआ। सूचना के अधिकार कानून के तहत हासिल एक जानकारी के मुताबिक करीब साढ़े पांच हजार करोड़ रुपए केंद्र सरकार के विज्ञापनों पर खर्च हुए। जाहिर है केंद्र सरकार का विज्ञापन प्रधानमंत्री का ही प्रचार था। इसके बाद राज्यों के हजारों करोड़ के विज्ञापन थे। फिर भाजपा का अपना प्रचार था। सो, हजारों करोड़ रुपए के इस प्रचार से मोदी का नाम गांव-गांव तक पहुंचा।

ऐसा नहीं है कि सिर्फ ब्रांड मोदी के नाम को स्थापित करके जीत को सुनिश्चित मान लिया गया। इसके समानांतर राहुल गांधी को ‘पप्पू’ साबित करने का प्रचार भी हुआ। इसके लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया गया। राहुल गांधी के भाषणों के अंशों को संपादित करके यह बताया गया कि वे आलू से सोना बनाने की तकनीक ला देंगे। असल में राहुल ने कहा था कि मोदी जी ऐसा वादा करते हैं कि वे ऐसी मशीन देंगे, जिसमें एक तरफ से आलू डालने पर दूसरी ओर से सोना निकलेगा। लेकिन इसे संपादित करके इसका इस्तेमाल राहुल को पप्पू बताने के लिए किया गया। यह एक मिसाल है। ऐसे काम अनगिनत भाषणों और वीडियो के साथ किया गया। इसके बाद अपने आप भाजपा ने मोदी के कंट्रास्ट में राहुल को खड़ा किया।

यह प्रचार की अगली कड़ी थी। पहले मोदी की सकारात्मक छवि की ब्रांडिंग हुई, उसके बरक्स राहुल गांधी की ‘पप्पू’ वाली छवि का प्रचार हुआ और उसके बाद मोदी के मुकाबले राहुल को खड़ा किया गया। तभी पूरे चुनाव में हाशिए पर के मतदाता यह सवाल पूछते नजर आए कि मोदी को नहीं चुनें तो क्या राहुल को चुन दें? मोदी बनाम राहुल या मोदी बनाम कौन का प्रचार भाजपा के लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद साबित हुआ। यह ध्यान रखने की बात है कि जब नेता के प्रति सद्भाव हो और उसकी सकारात्मक छवि का प्रचार हो तो उसकी लोकप्रियता वोट में तब्दील होती है। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल और बिहार में नीतीश कुमार को इसका फायदा मिला था। पांच बार से ओड़िशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को इसका फायदा मिल रहा है। विकल्पहीनता की स्थिति बता कर विपक्ष को बौना बना देना, चुनाव जीतने का सचमुच एक सफल फार्मूला है।

विपक्ष को रक्षात्मक बनाने के लिए मोदी के साथ साथ अमित शाह का भी प्रचार हुआ। यह नैरेटिव बनाया गया कि मोदी हैं तो मुमकिन है और शाह हैं तो संभव है। सोशल मीडिया में शाह को लेकर वायरल होने वाले पोस्ट को देखें तो इसके असर का अंदाजा होगा। सोशल मीडिया में यह बताया जाता है कि कैसे शाह चाहें तो पाकिस्तान में भी भाजपा की सरकार बना सकते हैं। शाह चाहें तो चुटकियों में किसी राज्य की सरकार गिरा सकते हैं। कांग्रेस अध्यक्ष का भी चुनाव हो तो शाह ही जीत जाएंगे। ऐसे मीम हजारों नहीं, लाखों की संख्या में सोशल मीडिया में दिख जाएंगे। इनके सहारे भाजपा ने धारणा की लड़ाई जीती। आम आदमी में यह मैसेज कराया कि इनके सिवा और कोई नहीं है और दूसरी ओर विपक्ष को धारणा के स्तर पर, मनोबल के स्तर पर पराजित कर दिया।

ध्यान रखें की पहली लड़ाई दिमाग की जीती जाती है, जो चुनाव से पहले ही मोदी और शाह जीत चुके थे। यह बात स्थापित की जा चुकी थी कि मोदी में रामायण के बाली जैसी क्षमता है, जो वे अपने दुश्मन की आधी शक्ति पहले ही छीन लेते हैं। ब्रांड की इस ताकत के बाद जीत दिलाने वाला सबसे अहम मुद्दा राष्ट्रवाद का नैरेटिव था, जिस पर कल विचार करेंगे।

अजित द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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