बौद्धिक आतंकवाद बनाम बौद्धिक खालीपन

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कुछ बुनियादी विषयों पर चुनावी/दलीय राजनीति से ऊपर उठ कर ही विचार करना चाहिए। धर्म-रक्षा, देश-सुरक्षा, प्रजा को दुष्टों-अपराधियों के त्रास से मुक्त करना ऐसे विषय हैं। इसी श्रेणी में शिक्षा-संस्कृति की चिन्ता भी रहनी चाहिए। अतः देश में प्रभावी बौद्धिकता पर भी केवल ‘पार्टी’ दृष्टि से विमर्श करना व्यर्थ होगा।

समाज और संस्कृति बहुत व्यापक विषय हैं। इस के सामने राजनीति, राजनीतिक दल बहुत छोटे हैं। चाहे आज राज्यसत्ता हर चीज को प्रभावित कर रही है। फिर भी, जिस समाज की जैसी सांस्कृतिक स्थिति है, उसी से वहाँ राजनीति का स्तर भी बनता है। उदाहरण के लिए, जैसा चुनाव-प्रचार भारत में दिखता है, वैसा इंग्लैंड में असंभव है, जबकि दोनों संसदीय लोकतंत्र हैं। अतः सामाजिक वस्तुस्थिति ही निर्धारक तत्व है।

स्वतंत्र भारत में आम जनता और बौद्धिक वर्ग की समझ में भारी अंतर रहा, और बढ़ता गया है। सामान्य लोग धर्म-भावना, सहज न्याय, और शांतिपूर्ण जीवन को महत्व देते हैं। बाकी चीजें इस के अनुरूप चाहते हैं। किन्तु बौद्धिक वर्ग अपनी आइडियोलॉजिकल टेक को सर्वोपरि मानता है, वह भी संपूर्णतः विदेशी, कृत्रिम निर्मितियों से बनी और बदलती टेक। पहले सोशलिज्म-समर्थन और कैपिटलिज्म-निन्दा से शुरू होकर आज वह सेक्यूलरिज्म, इन्क्लूसिवनेस, मायनोरिटी, दलित, गे-राइट्स, आदि के समर्थन तथा मेजोरिटेरियनिज्म, हिन्दुइज्म, ब्राह्मणिज्म, आदि की निन्दा विरोध पर टिका है। चाहे इन के अर्थों पर उस में कोई स्पष्टता न हो। न ही उसे जनता की चाह से मतलब है। उसे तो जिद है कि जनता को क्या चाहना चाहिए!

इस प्रकार, यह कोरी पार्टी-बंदी वाला आइडियोलॉजिकल विमर्श या प्रचार मात्र रहा है। इसीलिए जब जनता किसी ऐसी माँग, या दल को समर्थन दे, जो बौद्धिक वर्ग को पसंद नहीं, तो यह अपने विचारों की समीक्षा के बदले माथा-पच्ची करता है कि कैसे जनता को ‘भ्रम-मुक्त’ किया जाए। इसी को कुछ लोग ‘बौद्धिक आतंकवाद’ का नाम देते हैं। अर्थात् वामपंथी, सेक्यूलरवादी, इस्लामवादी, अलगाववादी, चर्च-पोषित दलितवादी, नव-गाँधीवादी, आदि बौद्धिकों ने सत्ता के सहयोग और छल-प्रपंच से अपनी बौद्धिक स्थापनाओं को देश की शिक्षा व पत्रकारिता में स्थापित किया है। विरोधी स्वरों को लांछन, गाली-गलौज, आदि से अपदस्थ करना उन का हथियार रहा है। इस का सचमुच ऐसा आतंक है, कि अच्छे-अच्छे लोग अपनी वास्तविक अनुभूति लिखने, बोलने से बचते हैं।

इस रूप में बौद्धिक आतंकवाद गलत संज्ञा नहीं। दशकों से उक्त बौद्धिक गुटों ने विविध राजनीतिक दलों के साथ लग कर छल-बल से अनेक ऐसी बातें शिक्षा-तंत्र में जमा दी हैं, जो सारतः हिन्दू-विरोधी, विखंडनकारी और हिंसक हैं। चूँकि नेतागण प्रायः दलीय-स्वार्थों से अधिक न देख सकने वाले रहे, इसलिए उन्होंने यह स्थिति बेरोक बनने दी।

इस में सत्ताधारी और विरोधी दलों का समान योगदान रहा। क्योंकि गंभीर मुद्दों, यानी जिसे राजनीतिक दल गंभीर समझते हैं, उन पर वे विपक्ष में रह कर भी प्रभावी हस्तक्षेप करते हैं। अनेक उदाहरण हैं, जब कोई नेता या मामूली दल भी दबाव बना कर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय तक उलटवा देता है। अतः यदि बुनियादी विषयों में हानिकर मान्यताएं शिक्षा-तंत्र में जमती गईं, तो कारण यह भी था कि विरोधी दलों, जिन में ‘राष्ट्रवादी’ य हिन्दूवादी अग्रणी थे, उन्होंने उस हानिकारक प्रक्रिया का नोटिस न लिया। उसे मामूली समझ कर उस का विरोध करने में समय या शक्ति नहीं लगाई।

और, यही असल विडंबना है! आज वे राष्ट्रीय सत्ता में हैं। पहले भी थे। राज्यों की सत्ता में तो वे दशकों से रहे। तब यह ‘बौद्धिक आतंकवाद’ खत्म / कमजोर करने के लिए उन्होंने क्या किया? उत्तर है कि वे निपट सूरदास बने रहे। विपक्ष में रहते हुए जैसा गैर-जिम्मेदार रुख रखा, सत्ता में आकर भी निष्ठापूर्वक वही प्रदर्शित किया। एक बार नहीं, बार-बार।

हाल का उदाहरण लें। वर्षों से बड़ी जिम्मेदारी लिए हुए एक राष्ट्रवादी नेता ने भरी सभा में, टी.वी. कैमरों पर कहा कि उन्हें गर्व है कि उन के समय में इतिहास, साहित्य, राजनीति, आदि की शिक्षा पर कोई ‘कंट्रोवर्सी’ नहीं हुई। अर्थात्, वे जिस ‘बौद्धिक आतंकवाद’ की निन्दा करते थे, उसे उन्होंने बदस्तूर रहने दिया! जो विषैली, फूटपरस्त, अलगाववादी, हिन्दू-धर्म द्वेषी, और झूठी बातें विद्यार्थियों को पिलाई जाती रही हैं, वह बेरोकटोक चलती रही। बल्कि, उसी सूरदासी भाव में उन्होंने उसे उत्साहपूर्वक वहाँ भी फैलाया, जहाँ अब तक नहीं पहुँची थी!

स प्रकार, ‘बौद्धिक आतंकवाद’ के समक्ष संगठित विकल्प केवल बौद्धिक दृष्टिहीनता, खालीपन का है। बौद्धिक आतंक की निंदा कर के, अपनी पार्टी के लिए कुछ और समर्थन बढाने की चाह के सिवा कोई लक्ष्य नहीं है। वस्तुतः विडंबना इस से भी गहरी है। बौद्धिक आतंक की निंदा करने वाले उन्हीं हानिकारक विचारों को फैलाने की व्यवस्था करते हुए, ठसक से दावा करते हैं कि वे भारत को ‘विश्व-गुरू’ बना देंगे!

यह सचमुच आर्वेलियन परिदृश्य है। जिस भारतीय महान ज्ञान-भंडार का विश्व में सदियों से आदर रहा, और आज भी है, क्योंकि उस की मूल्यवत्ता स्थाई है – उसी ज्ञान को यहाँ औपचारिक शिक्षा में पूरी तरह अछूत, उपेक्षित बनाए रखना। जबकि ऐसा नहीं कि ‘सांस्कृतिक’ राष्ट्रवादियों ने शिक्षा में बिलकुल हस्तक्षेप नहीं किया। पर उन की बुद्धि सिर्फ इस पर लगीं कि किस प्रकार अपने पार्टी नेताओं को नेहरू-गाँधी जैसा कुछ सत्ता-सम्मान दिलाएं। बाकायदा निर्देश दिए गए कि उन के नेताओं के बारे में ‘कुछ ज्यादा’ पढ़ाया जाना चाहिए।

दूसरे शब्दों में, यदि उपनिषदों से लेकर विवेकानन्द, श्रीअरविन्द और जदुनाथ सरकार, राम स्वरूप, सीताराम गोयल, तक महान चिंतक, विद्वान शिक्षा में बहिष्कृत रहें, तो कोई उज्र नहीं। बस, इन के पार्टी नेताओं पर कुछ सच्ची-झूठी बातें शिक्षा-तंत्र में जुड़ जाए तो इसी से वे कृतार्थ होते हैं। इसीलिए, गत पंद्रह-बीस सालों में, जब जहाँ ‘राष्ट्रवादियों’ को मौका मिला, उन्होंने अपने नेताओं के नाम पर विश्वविद्यालय से लेकर विभाग, चेयर, पीठ, बनाए तथा अनगिन भवन, सड़क, स्टेशन, आदि के नामकरण भी किए।

यही चाह उन्होंने सामाजिक जीवन में भी प्रदर्शित की। जिन ने आजीवन एक मौलिक पुस्तिका तक नहीं लिखी, उन के नाम पर दर्जनों राष्ट्रीय सेमिनार, गोष्ठियाँ, संकलन, ग्रंथ, आदि प्रकाशित कराए गए। किसी को ऋषि, तो किसी को द्रष्टा, चिंतक, आदि बताने की कोशिश हुई। मानो प्रचार से ही वे नेहरू, गाँधी के समकक्ष या उपर हो जाएंगे!

इस बीच, वे घातक विचार जो दशकों से हमारे नौनिहालों, युवाओं को मतिभ्रष्ट करते रहे हैं, वे यथावत चल रहे हैं। उन विचारों की असलियत दिखा सकने वाले सच्चे विद्वानों, उन की मौलिक पुस्तकों, पर कभी कोई गोष्ठी ‘सांस्कृतिक’ राष्ट्रवादियों ने नहीं की। न उस मूल्यवान साहित्य को प्रसारित किया। यदि किसी ने करना भी चाहा, तो उसे भी रोका! वे अपने पार्टी साहित्य को पर्याप्त समझते हैं। अतः बौद्धिक आतंकवाद की तुलना में बौद्धिक खालीपन ही विकल्प रूप में प्रस्तुत है। शेष लोग या तो राह किनारे बेबस तमाशबीन, या उन की दया के मुँहताज हैं।

शंकर शरण
लेखक स्तंभकार है, ये उनके निजी विचार हैं

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