कोरोना वायरस के संकट के साथ प्रवासी मजदूरों की पीड़ा भी देश के सामने उभरकर आई है। इसी के साथ बिहार एक बार फिर राष्ट्रव्यापी चर्चा का विषय बना है योंकि ज्यादातर प्रवासी मजदूर और कामगार बिहार के ही हैं। उनकी दुर्दशा को देखते हुए यह सवाल सिर उठाने लगा है कि आखिर बिहार से इतने बड़े पैमाने पर पलायन अब भी यों जारी है। वे कौन सी परिस्थितियां हैं जो लोगों को अपना घर छोडऩे को बाध्य कर रही हैं। सचाई यह है कि बिहार से सिर्फ श्रमिक वर्ग का ही पलायन नहीं हुआ है, बल्कि वहां का मध्यवर्ग भी शिक्षा और रोजी-रोटी के लिए अपना घर छोड़कर महानगरों का रुख कर रहा है। राज्य सरकारों की बेरुखी इसके लिए सीधे जिम्मेदार रही है। बिहार देश के सबसे गरीब प्रदेशों में शुमार है, जहांकी करीब 33 फीसदी आबादी निर्धनता रेखा के नीचे गुजरबसर करती है। रोजगार के अवसरों का अभाव होने के कारण प्रदेश के नौजवान नौकरियों की तलाश में पलायन को मजबूर हैं। यही वजह है कि बिहार देश का दूसरा ऐसा प्रांत है, जहां से रोजी-रोटी की तलाश में सबसे अधिक लोग अन्य राज्यों का रुख करते हैं। कोरोना वायरस के कहर का असर देश में रोजगार पर पडऩे की बात सामने आने से पहले ही बिहार के 40 फीसदी युवा बेरोजगार हो चुके हैं।
यह आंकड़ा पीरियड लेबर फोर्स सर्वे यानी पीएलएफएस पर आधारित है। बहुआयामी गरीबी सूचकांक के अनुसार गरीबी की दर बिहार में सबसे ज्यादा है। बिहार सरकार चुनाव जीतने के लिए सुशासन का प्रचार कर रही है मगर प्रदेश की गरीबी और बेरोजगारी को देखते हुए इस पर यकीन करना मुश्किल है। बिहार में 2011-12 और 2017-18 के दौरान बेरोजगारी की दर क्रमश: 2.5 फीसदी और 7.2 फीसदी रही है। इंडियास्पेंड के विश्लेषण के अनुसार, अगर आप ज्यादा पढ़े-लिखे हैं तो बिहार में आपके लिए बेकारी की संभावना ज्यादा होती है। उद्योग और औपचारिक रोजगार के अवसर के अभाव में बिहार की आधी से अधिक युवा आबादी कृषि पर निर्भर करती है। यही कारण है कि बिहार देश के सबसे गरीब सूबों में शुमार है, जहां प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत का एक तिहाई है। प्रति व्यक्ति आय का राष्ट्रीय औसत 1,42,719 रुपये सालाना है, जबकि बिहार में यह 47,541 रुपये है। पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश का औसत 68,792 रुपये है जिससे बिहार काफी पीछे है। नीति आयोग द्वारा जारी 2019-20 के एसडीजी सूचकांक के गरीबी के स्कोर कार्ड को देखें तो इससे भी ज्यादा दुखद पहलू सामने आता है।
इसके अनुसार, बिहार न सिर्फ पहले से अत्यंत गरीब राज्य है बल्कि यह हर साल और गरीब होता जा रहा है। बिहार का स्कोर 2018 में जहां 45 था वहीं 2019 में फिसल कर 33 पर आ गया है। दरअसल, बिहार की तस्वीर बदलने के लिए इसकी तरक्की के लिए प्रदेश सरकार ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। खासतौर से प्रदेश की शिक्षा संबंधी बुनियादी जरूरतों की तरफ मुख्यमंत्री ने ध्यान ही नहीं दिया। बिहार में बीते 15 साल से सुशासन का राग अलाप रही सरकार के कामकाज का आलम यह है कि प्रदेश में एक लाख की आबादी पर सात कॉलेज हैं जबकि इस मामले में राष्ट्रीय औसत 28 है। प्रदेश में गुणवाापूर्ण शिक्षा प्रदान करने में सरकार विफल रही। शिक्षक और छात्र के अनुपात की बात करें तो बिहार में यह सबसे कम है। राजनीतिक लाभ लेने के लिए मुख्यमंत्री वर्षों से शिक्षकों के खाली पदों पर अयोग्य उम्मीदवार नियुक्त करते रहे हैं। माध्यमिक स्तर पर महज 55 फीसदी और उच्चतर माध्यमिक स्तर पर 55 फीसदी शिक्षक ही आज पेशवर तरीके से योग्य हैं। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि शिक्षा को माफिया के हाथों सौंप दिया गया है।
बिहार में न सिर्फ शिक्षा का स्तर नष्टप्राय है बल्कि पूरी व्यवस्था भ्रष्टाचार में लिप्त है। स्वास्थ्य ढांचा और सामाजिक बुनियाद भी कमजोर रही है। बिहार सरकार की नाकामी के कारण ही इतनी बड़ी तादाद में लोगों को रोजीरोटी या बेहतर शिक्षा की तलाश में पलायन करना पड़ा, जो आज लॉकडाउन को लेकर पैदा हुई मुसीबत को झेल रहे हैं। बिहार में 21 दिनों तक वारंटीन सेंटर में रहने के बाद वहां से निकलेंगे तो उन्हें राज्य तक आने में हुए तमाम खर्चे दिए जाएंगे और उसके अलावा 500 रुपये और दिए जाएंगे। हर व्यक्ति को दी जाने वाली यह राशि न्यूनतम एक हजार होगी। मुख्यमंत्री ने कहा कि हम लोगों ने जान-बूझकर कोई घोषणा इस संबंध में पहले नहीं की, योंकि हमारी सरकार का विश्वास बोलने में नहीं बल्कि काम करने में है। हमारे सुझाव पर बिहार के रहने वाले प्रवासी जो बाहर फंसे हुए हैं, चाहे छात्र हों क्या फिर मजदूर हों, उन्हें रेलगाड़ी के माध्यम से वापस लाया जा रहा है। बहरहाल, इस संकट के गुजर जाने के बाद भी चुनौतियां कम नहीं होने जा रहीं। राज्य सरकार को ऐसे कदम उठाने होंगे, जिनसे बिहार की तस्वीर बदले और लोगों के सामने पलायन की नौबत ही न आए।
यशवंत सिन्हा
(लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं,ये उनके निजी विचार हैं)