14 वीं शतादी से आज भी रायबरेली के डलमऊ तहसील में ऐहार गांव में स्थित बालहेश्वर शिव धाम लोगों की श्रद्धा व आस्था का केंद्र बना हुआ है। शिव मंदिर के विषय में कई आख्यान प्रचलित हैंए जिसमें पता चलता है कि मंदिर में स्थापित शिवलिंग का प्राकट्य गाय के दूध से हुआ था। मंदिर के मुख्य पुजारी पंडित झिलमिल महाराज के अनुसार बल्हेमऊ गांव के तिवारी परिवार जो कि गांव की गायें जंगल में चरने जाया करती थी। अचानक एक गाय ने दूध देना बंद कर दिया तो उन्होंने सोचा कि शायद चरवाहा दूध की चोरी करता है।
चरवाहे को रंगे हाथ पकडऩे के लिये एक दिन मालिक जाकर जंगलों में छुपकर बैठ गया। उसने जो देखा तो उसकी आंखें फ़टी रह गई, अचानक वही गाय झाडिय़ों में जाकर खड़ी हो गई और उसके थन से दूध अपने आप गिरने लगा। मालिक ने जब नजदीक जाकर देखा तो दूध जमीन के एक गढ्ढे में जा रहा है। कथा के अनुसार मालिक जब घर लौटे तो रात में उन्हें स्वप्न में इसी स्थान पर खुदाई से प्राप्त शिवलिंग पर मंदिर बनाने का आदेश हुआ।
जब इस स्थान की खुदाई की गई तो यहां से एक विशाल स्वयंभू शिवलिंग प्राप्त हुआ। इसी स्थान पर शिव मंदिर की स्थापना की गई और यह मंदिर भगवान बल्हेश्वर शिव धाम के नाम से प्रसिद्ध हुआ। मंदिर की स्थापना के बाद से इसमें कई बार निर्माण होते रहेएवर्तमान मंदिर का निर्माण ऐहार गांव के पंडित रामसहाय तिवारी व उनके पुत्र भगवान प्रसाद तिवारी द्वारा 1747 ई. में कराई गई थी। मंदिर परिसर में ही विशाल तालाब है। दूर दराज के लाखों भक्त शिवरात्रि व सावन के महीने में यहां आते हैं। मंदिर के संबंध में एक आश्चर्यजनक चर्चा यह भी है कि मंदिर के गुबद में लगा त्रिशूल अपनी दिशा बदलता रहता है। इस बात की पुष्टि करते हुए मुख्य पुजारी पंडित झिलमिल महाराज ने बताया कि इसकी चर्चा भक्तों से सुनी गई थी जिसके बाद यह सोचा गया कि कहीं त्रिशूल ढीला न होए लेकिन जब निरीक्षण किया गया तो वह कहीं से भी ढीला नहीं था। बावजूद इसके त्रिशूल के दिशा बदलने के कई प्रमाण भक्तों के पास मौजूद हैं।