बहाने पटना – चाहेगा सटना

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चाचा ने रात में ही बता दिया था कि सुबह पटना चलना है तो रात आंखों में ही कटनी थी। तब तक ये वाला गाना नहीं बना था कि ‘पटना बहाने-चाहेगा सटना’, सो सटने जैसी कोई चीज सपने में भी नहीं आई। सुना था कि बड़ा शहर है, बड़े लोगों का शहर है। यही सब सोचते-सपनते सुबह हुई तो चाचा रेडी थे। देखकर मुश्किल से पंद्रह मिनट में मैं भी तैयार हुआ और दोनों डीह बाबा को छूकर पटना को निकल पड़े। चलते-चलते आधे घंटे गुजर गए तो मैंने पूछा कि पटना जाने वाली गाड़ी कहां से पकड़ेंगे? वो बोले कि पटना जाने के लिए गाड़ी की क्या जरूरत? मैंने कहा पैदल जाएंगे, तब तो चार-पांच दिन में पहुंचेंगे। चाचा हंसे, बोले कि यहीं पास में ही है पटना। दरअसल पटना का सपना दिखाकर चाचा मुझे पास वाले गांव पटना में लेकर जा रहे थे। यह तो सरासर धोखा है- सोचकर मेरा दिल टूट गया।

ऊपर से जबरदस्ती पहनी धोती भी चलते वक्त बार-बार उलझ रही थी। खैर, हम पटना पहुंचे। वह एक वनवासी लडक़ी का परिवार था, जिसे शादी करानी थी। शादी से पहले कथा शुरू हुई जो चाचा ने बांची। फिर हमें खाने के लिए बुलाया गया। घर के बाहर एक छप्पर छाकर जमीन पर गाढ़ा गोबर लेपा हुआ था। वहीं हमारे सामने पत्तल डाली गई। खाना बहुत सही था, लेकिन खाते-खाते चाचा ने दूसरा बम फोड़ा। पहले तो बोले कि सहिना की पकौड़ी और लो फिर फुसफुसाते हुए कहते हैं कि ‘शादी तुम कराओगे।’ दिल तो मेरा पहले ही चकनाचूर था, ये सुनते ही मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम। मैंने कहा कि मैंने जीवन में कभी शादी नहीं कराई। मुझे शादी करानी नहीं आती और मैं ये नहीं कर सकता। बिना टाइटल की एक मैली-कुचैली पोथी पकडाते हुए चाचा बोले कि इसे पढ़ते रहना, न पढ़ सको तो पढ़ने की एक्टिंग करते रहना।

खैर, गनीतम रही कि शुरुआत में पान-गौरी चाचा ने करा दिया, मैं बीच-बीच में मंत्र पढ़ता रहा। संस्कृत मैं ठीस से नहीं पढ़ पा रहा था, अभी भी नहीं पढ़ पाता। लेकिन जो कुछ भी मैं कर रहा था, उस लड़की की बूढ़ी मां ऐसे सुन रही थी कि वैसे तो कोई अमिताभ बच्चा को भी न सुनता होगा। इस बीच गांठ बंधी, जयमाला के बाद फेरे हुए और राम-राम करते मेरी ड्यूटी खत्म हुई। उस बूढ़ी मां ने मुझे मेरी जजमानी गी, अंगौछे में सीधा बांधा, पैर छुए और सब लोग हमें गांव के बाहर तक छोड़ने आए। मुझे अभी तक यह यकीन नहीं हो रहा था कि अभी-अभी मैंने लाइफ में पहली बार किसी की शादी कराई है। उससे भी बड़े ताज्जुब की बात मेरे लिए ये थी कि मंत्र पढ़ो या भुनभुनाते रहो, शादी हो ही जाती है। लेकिन जो चीज मुझे बार-बार कचोट रही थी, वह थी उस बुढ़िया की आंख में तैरती श्रद्धा, जिसे पता ही नहीं था कि वह कैसे फर्जी शब्दों पर टिकी है। पंडिताईका वह मेरा पहला और आखिरी दिन था।

राहुल पांडेय
लेखक स्तंभकार हैं ये उनके निची विचार हैं

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