सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के बाद रेप पीड़िता से जुड़े सारे मामले दिल्ली शिफ्ट हो गाए हैं। अब उम्मीद जगी है कि दबंग विधायक कुलदीप सेंगर के खिलाफ लगातार सुनवाई के बाद पीडि़ता के हक में फैसला आ पाएगा। इस वक्त रेप पीडि़ता वेंटीलेटर पर जीवन और मौत के बीच झूल रही है। पिता और चाचा की पहले ही मौत हो चुकी है। योगी सरकार को आदेश दिया गया है कि पीडि़ता को 25 लाख रूपये का मुआवजा तत्काल दिया जाए। इस बीच यूपी पुलिस के तीन सुरक्षाकर्मी निलम्बित कर दिए गये हैं। वे पीडि़ता की सुरक्षा में थे। यही वजह है कि पीडि़ता और उसके परिवार की सुरक्षा सीआरपीएफ के हवाले कर दी गई है। यह स्थिति पुलिस के लिए तो शर्मसार करने वाली है ही इससे ज्यादा योगी सरकार के लिए शर्मिंदगी की बात है, खासकर तब, जब बेहतर कानून-व्यवस्था का दावा किया जाता है।
लगता है कि सरकार में कोई भी दल हो, पुलिस की कार्यशैली पर कोई फर्क पड़ता नहीं दिखाई देता। सेंगर की दबंगई और क्षेत्रीय स्तर पर प्रभाव का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि 2017 से यह मामला चल रहा है। उनके खिलाफ मुक दमा भी तब लिखा गया जब हाईकोर्ट की तरफ से योगी सरकार को लताड़ लगी। इसके पहले रेप पीडि़ता अपनी मां के साथ मुख्यमंत्री से फरियाद करने लखनऊ भी आई थी। उस वक्त भी पुलिस सत्ता के दबाव में थी, इस बार भी पुलिस का रवैया पहले जैसा ही रहा। यह तो भला हो मीडिया की तत्परता का, वरना 12 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश को पीडि़ता की ओर से अपनी जान-माल की सुरक्षा के लिए खत भेजा गया था लेकिन रजिस्ट्री विभाग भी तब जागा जब प्रधान न्यायाधीश ने मामले का संज्ञान लिया। इससे स्पष्ट हो जाता है कि हर स्तर पर उदासीनता पसरी हुई है।
यदि आप प्रभावशाली नहीं हैं तो आपकी पीड़ा भी बेमानी हो जाती है। योगी सरकार कितना भी दावा करे लेकिन बीते दो साल से पीडि़ता के मामले की जांच के नाम पर बरती गई ढिलाई बहुत कुछ स्पष्ट करती है। यूपी और केन्द्र दोनों जगह भाजपा की सरकार है तब भी जांच में देरी होती रही तो इसे क्या समझा जाए? एक और बात जो भाजपा की मंशा पर सवाल खड़ा करती है। मीडिया की तत्परता औ सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के बाद गुरूवार को राष्ट्रीय प्रवक्ता ने सूचना दी कि सेंगर को पार्टी से निकाल दिया गया है लेकिन प्रदेश भाजपा अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह, सेंगर के निलम्बन की तस्दीक करते रहे। हालांकि कुछ घंटों बाद उन्होंने भी सफाई देते हुए बताया कि पहले निलम्बन हुआ था, अब निष्कासन हुआ है। यह घटनाक्रम कहीं न कहीं सेंगर के रसूख और भाजपा के ऊहापोह को रेखांकित करता है।
यह सवाल अब भी अनुत्तरित है कि वो कौन-सी मजबूरी रही, जिसने रेप आरोपी सेंगर के पक्ष में खड़ा रहने के लिए मजबूर किया? वैसे यह स्थिति किसी भी सत्ताधारी दल के साथ देखी जा सकती है। जयपुर में इंसाफ न मिलने से परेशान होकर एक महिला ने थाने के सामने आत्मदाह कर लिया। उसका रेप हुआ था और उसकी थाने पर सुनवाई नहीं हो रही थी। राजस्थान सरकार और पुलिस की भूमिका सवालों के घेरे में है। इसी तरह का मामला जम्मू-कश्मीर में कठुआ रेप का था जहां दोषियों को बचाने और पीडि़त परिवार के पक्ष में लडऩे वाली महिला वकील को धमकाया जा रहा था। आखिरकार वहां भी केस को कश्मीर से बाहर शिफ्ट किया गया और फास्ट ट्रैक कोर्ट में सुनवाई के बाद दोषियों को सजा दी गई। इंसाफ के लिए ऐसी परिस्थिति का पैदा होना चिंतित करता है। अच्छा होता यूपी में ऐसे मामले में निष्पक्षता के साथ सरकार और पुलिस आगे बढ़ती तो मौजूदा स्थिति से शर्मसार ना होती। कितने भी दावे कियें जाएं लेकिन सच यही है कि पीडि़ता और उसके परिवार के साथ समय रहते इंसाफ नहीं हुआ।