उत्तरप्रदेश सरकार ने प्रवासी मजदूरों के लिए कुछ ऐसी घोषणाएं की हैं, जो अगर लागू हो गईं तो अपने गांव वापस लौटे मजदूरों का काफी भला हो जाएगा लेकिन उसका दूसरा पहलू यह भी है कि वे अगर शहरों की तरफ वापस नहीं लौटे तो भारत के उद्योग-धंधे ठप्प हो सकते हैं। माना जाता है कि देश में प्रवासी मजदूरों की संख्या 6-7 करोड़ के करीब है। यह संख्या उनकी है, जो कारखानों में नियमित काम करते हैं, जिनको मासिक वेतन मिलता है और जिनके आधार कार्ड बने हुए हैं लेकिन घरेलू नौकरों, पटरियों पर सामान बेचेनवालों, ठेलोंवालों और दुकानों के छोटे कर्मचारियों की कोई निश्चित गिनती किसी भी सरकार के पास नहीं है। तीन साल पहले ‘नेशनल सेंपल सर्वे’ की रपट के मुताबिक दिल्ली और मुंबई में 43 प्रतिशत जनता बाहरी है याने वे लोग प्रवासी हैं।
तालाबंदी के बाद मची भगदड़ में ज्यादातर प्रवासी मजदूर अपने गांवों की तरफ वापस लौट रहे हैं। जो पंजीकृत हैं उनकी संख्या उप्र, मप्र, बिहार, छत्तीसगढ़ आदि में लाखों तक जा रही है। जो पैदल ही लौट रहे हैं, उनकी संख्या और भी ज्यादा है लेकिन इस वक्त उप्र की सरकार ऐसी अकेली सरकार है, जो वादा कर रही है कि हर लौटनेवाले मजदूर को वह काम देगी। इसके लिए वह प्रवासी आयोग स्थापित कर रही है। सारे मजदूरों का वह बीमा भी करवाएगी। उसने यह मालूम करना भी शुरु कर दिया है कि कौनसा मजदूर क्या-क्या काम कर सकता है। यही प्रक्रिया बिहार सरकार भी अपनाने जा रही है। हो सकता है कि अन्य प्रदेश भी इसी राह पर चल पड़ें। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि गांवों में छोटे-मोटे उद्योग-धंधे कौन लगाएगा ? पूंजी कहां से आएगी ? तैयार माल को बाजारों तक पहुंचाना कितना खर्चीला होगा ? यह ठीक है कि मनरेगा के तहत कुछ समय के लिए करोड़ों प्रवासियों को रोजगार दिया जा सकता है। उन्हें अपने गुजारे लायक पैसे तो मिल जाएंगे लेकिन ये पैसे कितने दिनों तक घर बैठे बांटे जा सकेंगे ? और फिर मनरेगा के भुगतान में भी तरह-तरह के भ्रष्टाचार की खबरें आती रही हैं। इसमें शक नहीं कि करोड़ों मजदूरों के भरण-पोषण को सबसे पहली प्राथमिकता मिलनी चाहिए लेकिन शहरों में चल रहे उद्योग-धंधों को भी किसी तरह चालू किया जाना चाहिए। इसका भी कुछ पता नहीं कि जिन मजदूरों को एक बार शहर की हवा लग गई है, वे गांवों में टिके रहना पसंद करेंगे या नहीं ?
डॉ वेद प्रताप वैदिक
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)