कर्नाटक की सरकार ने अपना फैसला बदलकर ठीक किया। पहले उसने उत्तर भारत के मजदूरों की घर-वापसी के लिए जो रेलगाड़ियां तैयार थीं, उन्हें अचानक रद्द कर दिया था लेकिन सर्वत्र होनेवाली आलोचना ने उसे मजबूर कर दिया कि वह अपने इस फैसले को रद्द करे। यदि इन मजदूरों को 40-45 दिन पहले ही घर-वापसी की छूट मिल जाती तो अभी तक ये काम पर वापस लौट आते लेकिन कारखानेदारों और भवन-निर्माताओं के अभी छक्के छूटे हुए हैं। ये मजदूर यदि अपने घर चले गए तो उद्योग-धंधे का चलना कैसे शुरु होगा ? लेकिन अभी जो आंकड़े सामने आए हैं, उनसे तो यह चिंता दूर हो सकती है। पता चला है कि बेंगलूरु में बाहर के 15 लाख मजदूर हैं लेकिन उनमें से सिर्फ एक लाख लोगों ने घर लौटने की अर्जी दी है। इसी तरह गुजरात के सूरत में 35 लाख मजदूरों में से सिर्फ 2 लाख लोगों ने घर-वापसी की इच्छा प्रकट की है। मैं सोचता हूं कि जो भी मजदूर लौटना चाहते हैं, उन्हें अभी लौटने दिया जाए और उनके लिए इतने आकर्षक वेतन और सुविधाओं की व्यवस्था की जाए कि वे स्वतः काम पर लौट आएं। इस लक्ष्य की पूर्ति सरकारों के सक्रिय सहयोग के बिना नहीं हो सकती। मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इस संबंध में कुछ ठोस पहल की है। दूसरे प्रदेशों के मुख्यमंत्री भी उस पर गौर कर सकते हैं।
प्रवासी मजदूरों की तरह तबलीगी जमात के 3 हजार बंदे भी पिछले एक माह से दिल्ली में फंसे हुए हैं। कोरोना को फैलाने में इस जमात के गैर-जिम्मेदाराना बर्ताव और सरकार की लापरवाही की आलोचना मैं काफी कड़े शब्दों में कर चुका हूं कि लेकिन इन तीन हजार लोगों को 14 दिन की नज़रबंदी (क्वारंटाइन) के बाद अब घर जाने की इजाजत मिलनी चाहिए थी। यह ठीक है कि 3 मई तक कर्फ्यू-जैसा लगा हुआ था। लेकिन अब क्या है ? अब भी उन्हें जाने क्यों नहीं दिया जा रहा है ? मेरी राय तो यह है कि जो विदेशी तबलीगी भी फंसे हुए हैं, उन पर सरकार अपना माथा क्यों पचा रही है ? उन्हें जेल में बिठाकर खिलाने-पिलाने से बेहतर है कि उन्हें अपने देश जाने दिया जाए। तबलीगियों का कोरोना ने भांडाफोड़ कर दिया है। उनकी सख्त जांच जारी है। यदि मजहब के नाम पर वे हमारे मुसलमानों को गुमराह कर रहे हों तो उनके विरुद्ध सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। इस कार्रवाई से अपने मुस्लिम मित्र-राष्ट्रों को भली-भांति अवगत करवाया जाना चाहिए। भारत सरकार को इस मामले में रत्तीभर भी लिहाजदारी नहीं करनी चाहिए।