पिछले दिनों दिल्ली की मंडोली जेल में दिल्ली दंगों की आरोपी कांग्रेस की पूर्व पार्षद इशरत जहां के साथ कैदियों ने मारपीट की। इससे पहले दिल्ली के दयालपुर इलाके में हुई सांप्रदायिक हिंसा में आरोपी तनवीर मलिक ने भी मंडोली जेल अधिकारियों पर मारपीट का आरोप लगाया था। भारतीय जेलों में कैदियों के साथ हिंसा की यह कोई इक्का-दुक्का घटनाएं नहीं है। यह तो हमारे सुधार गृहों की बिगड़ती हालत की एक बानगी भर हैं। इशरत जहां का आरोप है कि उसकी साथी कैदियों ने सुबह नमाज पढ़ते समय उनके साथ न केवल मारपीट की बल्कि भद्दी-भद्दी गालियां भी दीं। जेल की सहायक अधीक्षक ने इस घटना की अदालत के सामने पुष्टि भी की। एक माह के अंदर इशरत जहां के साथ मारपीट का यह दूसरा मामला है। इससे पहले उनके साथ मारपीट करने वाली कैदी को दूसरी जेल में स्थानांतरित कर दिया गया था। इशरत जहां के साथ हुई घटना के चंद घंटे बाद ही तिहाड़ जेल में सरेंडर करने आए कार्तिक उर्फ माधव के साथ न केवल मारपीट की गई बल्कि उसका कथित तौर पर अपहरण कर लिया गया। बाद में पता चला कि यह हरकत पुलिस कर्मियों की थी। हैरानी की बात यह है कि जेल गेट रजिस्टर में उनमें से किसी की एंट्री नहीं थी। तिहाड़ जेल परिसर के अंदर हिंसा की घटनाएं जब-तब सामने आती रहती हैं।
2020 के नवंबर माह में दिलशेर, सितंबर में सिकंदर उर्फ सन्नी डोगरा और जून में मोहम्मद महताब की तिहाड़ परिसर के अंदर ही धारदार हथियारों से हत्या कर दी गई। वहीं दिल्ली दंगों के सह अभियुक्त और आम आदमी पार्टी के निलंबित पार्षद ताहिर हुसैन के वकील रिजवान का आरोप है कि दिल्ली दंगों के अधिकतर आरोपियों को अपने साथी कैदियों से या फिर जेल प्रशासन के भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है। उन्हें आतंकवादी कह कर बुलाते हैं, जबकि उनपर लगे एक भी आरोप साबित नहीं हुए हैं। देश की सबसे सुरक्षित मानी जाने वाली तिहाड़ जेल की जब यह हालत है तो बाकी जेलों का अंदाजा बखूबी लगाया जा सकता है। खासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जेलें तो हत्या और गैंगवार के लिए बदनाम रही हैं। डॉनगिरी में कुख्यात मुन्ना बजरंगी की बागपत जेल में ही जुलाई 2018 में हत्या कर दी गई थी। उससे पहले 2016 में मुजफ्फरनगर जेल में कैदी चंद्रहास की हत्या हुई। उसी साल सहारनपुर जेल में बंद मुजफ्फरनगर के इनामी बदमाश सुखा की हत्या हुई। 2015 में मथुरा जेल में कुख्यात ब्रजेश मावी और राजेश टोटा के बीच गोलियां चलीं, जिसमें अक्षय सोलंकी और फिर बाद में घायल राजेश टोटा की भी अस्पताल ले जाते समय हत्या कर दी गई।
वहीं पूर्वांचल की नैनी, रायबरेली, देवरिया और सुल्तानपुर जेलें भी रसूखदार कैदियों की मुर्गा और शराब पार्टियों के चलते सुर्खियों में रही हैं। बिहार की बेऊर, पूर्णिया और मोतिहारी जेलों से भी कैदियों के खूनी संघर्ष की खबरें आती रही है। कोरोना काल में ही अपनी रिहाई को लेकर कोलकाता की दमदम जेल के विचाराधीन कैदियों ने दो दिन तक जमकर हिंसा और आगजनी की। एनसीआरबी की कारागार सांख्यिकी-2019 के अनुसार 31 दिसंबर 2019 तक देश की 1350 जेलों में कुल 4,78,600 कैदी बंद थे। जेलें 118.5 प्रतिशत भरी हुई हैं। इनमें दिल्ली की जेलों में सबसे ज्यादा भीड़भाड़ है जहां 100 की जगह 175 कैदी ठुंसे हुए हैं। इस मामले में उत्तर प्रदेश (168 फीसद) दूसरे, और उत्तराखंड (159 फीसद) तीसरे नंबर पर है।
एनसीआरबी के दो-तीन वर्ष पुराने आंकड़े के अनुसार भारतीय जेलों में 91 कैदियों पर महज एक सुरक्षाकर्मी है। कारागार सांख्यिकी 2019 के अनुसार 4,78,600 कैदियों में से 3,30,487 विचाराधीन हैं। यानी दो-तिहाई से भी अधिक ऐसे कैदी हैं, जिनका जुर्म साबित ही नहीं हुआ है। इनमें आधे से भी ज्यादा दलित, मुस्लिम और अनुसूचित जनजाति के कैदी हैं, जो खराब आर्थिक स्थिति के कारण मामले की ढंग से पैरवी नहीं करा पाते और जेलों में सड़ते रहते हैं। भारतीय जेलों की इस हालत के पीछे उनमें क्षमता से अधिक कैदियों के ठूंसे जाने को जिमेदार माना जा रहा है। जाहिर है कि हमारे सुधार गृहों और न्यायिक व्यवस्था को कैदियों से भी पहले सुधारने की जरूरत है।
मोहम्मद शहजाद
(लेखक पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)