पत्रकारिता का शर्मनाक दौर

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तो वह घड़ी आ ही गई। अब हाई कोर्ट भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को केंद्र सरकार के नियंत्रण में लाने के पक्षधर दिखने लगे हैं। मुंबई उच्च न्यायालय ने अभिनेता सुशांत सिंह की मौत के मामले की टीवी रिपोर्टिंग पर रोक लगाने संबंधी याचिका की सुनवाई के दौरान इस तरह की राय प्रकट की। माननीय न्यायमूर्ति ने गुरुवार को कहा कि उन्हें आश्चर्य है कि टीवी मीडिया केंद्र सरकार के नियंत्रण में क्यों नहीं है? अब शिखर सत्ता को दो सप्ताह में अपना उत्तर दाखिल करना है। गुरुवार को ही दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी सुनंदा प्रकरण में मीडिया को समानांतर सुनवाई करने के लिए सावधान किया और परदे पर अभिव्यक्ति में संयम बरतने की सलाह दी। मुल्क की दो बड़ी अदालतों का एक ही दिन पत्रकारों को नसीहत देना संकेत है कि अभिव्यक्ति के इस घर में सब कुछ ठीक नहीं है। आप मान सकते हैं कि संदेश में गंभीर चेतावनी छिपी है।

इस कॉलम के जरिये मैं बीते दो साल से परदे पर गैरजिम्मेदारी भरी पत्रकारिता और मीडिया ट्रायल के बारे में आगाह करता रहा हूं। मैंने साफ-साफ कहा है कि वह दिन दूर नहीं, जब पत्रकार दल सड़कों पर रिपोर्टिंग के लिए निकल नहीं पाएंगे। अब यह दोहराने की जरूरत नहीं कि तमाम भारतीय खबरिया चैनल छोटे परदे पर नौटंकी करने लगे हैं। वे बड़बोलेपन और फूहड़ रिपोर्टिंग का पर्याय बन चुके हैं। अगर यही रवैया जारी रहा तो एक दिन ऐसा भी आ सकता है, जब पत्रकारिता चौथे स्तंभ के रूप में नहीं जानी जाए। उसका स्तंभ का दर्जा ही विलुप्त हो सकता है अथवा वह स्तंभ नहीं, बेहद कुपोषित दुबला पतला बांस नजर आए।

यह भी आशंका है कि लोकतंत्र कहीं तीन या साढ़े तीन स्तंभों पर टिका न दिखाई देने लगे। खेद की बात तो यह है कि वरिष्ठ और दिग्गज संपादक-पत्रकार इस दुर्दशा पर अपने होंठ सिले बैठे हैं। याद रखिए, जो पीढ़ी अपने उत्तराधिकारियों को तैयार नहीं करती और हालात से जूझने के लिए सैद्धांतिक प्लेटफॉर्म नहीं देती, उसे खुद भी इतिहास के कूड़ेदान में ही जगह मिलती है। भारतीय पत्रकारिता के इस शर्मनाक दौर में हमारी चुप्पी को वक्त कभी माफ नहीं करेगा।

अगर पत्रकारों के उत्पीड़न का हालिया ग्राफ देखें तो पता चलता है कि आजादी के बाद साठ बरस तक एक साल में पत्रकारों को सताने की चार-छह वारदातें हुआ करती थीं। मगर अब कोई सप्ताह ऐसा नहीं जाता, जिसमें पत्रकारों के जेल जाने, हत्या, पीत पत्रकारिता, उत्पीड़न और निष्पक्ष पत्रकारिता पर आक्रमण के चार-छह प्रकरण दर्ज नहीं होते हों। पत्रकारों के लिए क्या यह बेहद क्रूर और भयावह दौर नहीं है? यह सच है कि सियासत कभी अपनी आलोचना या निंदा पसंद नहीं करती। उसे अपनी प्रशंसा ही अच्छी लगती है। इसलिए वह जब तब पत्रकारिता को प्रलोभन,दबाव या परेशान करके अपने पक्ष में करने का प्रयास करती है। लेकिन अगर हमारे नाचने में ही दोष हो तो घर का आँगन टेढ़ा बताने का कोई फायदा नहीं मिस्टर मीडिया!

अब तो हिन्दुस्तान में झोलाछाप मीडिया भी विकराल आकार लेता जा रहा है। जैसे-जैसे दुनिया आगे जा रही है, भारत में मानसिक तौर पर मीडिया उल्टे कदम रख रहा है। आधुनिक तकनीक से ही सब कुछ नहीं होता। पन्नों या पर्दों पर जो सामग्री परोसी जाती है, वह महत्वपूर्ण होती है। इस हिसाब से हम लगातार पिछड़ रहे हैं। उदाहरण के तौर पर समाज के तमाम वर्गों के लिए समाचार पत्रों और टेलिविजन चैनलों के पर्दे पर विशेषज्ञ अथवा वर्गीकृत सामग्री नजर नहीं आती, जबकि भारत का मध्यम वर्ग अभी भी एक परदे या एक अखबार में सब कुछ पाना चाहता है। आर्थिक दबाव में वह इससे अधिक खर्च नहीं कर सकता। ऐसे में नई नस्लों के साथ घोर अन्याय हो रहा है। हमारे अखबार और चैनल अपने कंटेंट में बच्चों के लिए अलग से या दे रहे हैं? या उन्हें वक्त से पहले वयस्क नहीं बना रहे हैं? पहले लोकतंत्र के तीन स्तंभ मिलकर इस चौथे स्तंभ का समर्थन करते थे। आज हालत एकदम उलट गई है। दुर्भाग्य यह है कि राह भटककर पगडण्डी पर चलने वाला मीडिया भी अपने को राजमार्ग पर चलता हुआ समझता है। इस मानसिकता का या किया जाए? या समाज जब खुलकर हमारे खिलाफ मोर्चा खोलेगा, तभी हम जागेंगे !

राजेश बादल
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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