नानक नाम मंत्र है जो बोले सो निहाल और जो ‘बो’ ले वो भी निहाल। बोले और ‘बो’ ले लगभग एक से उच्चारण वाले इस वाक्य में ऊपरी भेद है परंतु हैं परस्पर पूरक । ‘बो’ ले अर्थात बीज ले, जैसे किसान खेत में अन्न का एक दाना बीजता है और उससे उगने वाली बाली पर सौ-सौ दाने खिलते हैं और फिर वो सौ दाने अगले मौसम में हजारों व समय पा कर लाखों दानों में बदल जाते हैं। एक समय ऐसा भी आता है जब उसी दाने के वंशज अन्न भंडार बन संपूर्ण जीवजगत का भरण पोषण करते हैं। ईश्वर का नाम भी जो मन में बो लेता है उसका मन तो जगमग होता ही है साथ में उसकी रोशनी से रोशन हो जाता है सारा जगत। जो नानक नाम को मन में ‘बो’ ले या बीज ले उसका जीवन निहाल है। ‘बो’ ले शब्द ‘बोले’ का अगला चरण है, बोले अर्थात मुख से बोलना। बोलना पहला चरण है नाम की बिजाई का, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि यह दोयम है। यह पहला चरण है, ठीक उसी तरह जैसे पीएचडी के लिए पहली कक्षा में दाखिला, संगीतज्ञ बनने की सरगम।
वर्णमाला के बिना पीएचडी व सरगम के बिना संगीत के ज्ञान की कल्पना ही नहीं हो सकती। जो बोले और जो ‘बो’ ले सो निहाल एक ही मार्ग के मीलस्तंभ है अंतर केवल उस मीन पत्थर पर लिखे संदेश का है, तय की गई दूरी का है परंतु मार्ग एक ही है। जब तक मुख से बोला नहीं जाएगा तब तक मन में बोया भी नहीं जा सकेगा वह नाम जिसे श्री गुरु नानक देव जी ने कलियुग का तारणहार मंत्र बताया। कलि तारण गुर नानक आया और नानक ने इसी मंत्र को ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बताया। क्या है वह मूलमंत्र और समीक्षा करें। इक ओंकार सतिनाम, करता पुरखु निरभउ निरवैर। अकाल मूरति अजूनी सैभं गुरु प्रसादि। आदि सचु जुगादि सचु। है भी सचु नानक होसी भी सचु। सोचे सोचि न होवई जे सोची लख बार। चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिवतार। भुखिया भुख न उतरी जे बंना पुरीआं भार। सहस सियाणपा लख होहि, त इकन चले नालि। किव सचियारा होइए, किव कूड़ै तुटै पालि। हुक मि रजाई चलणा नानक लिखिआ नालि। नानक नदी के किनारे अपने साथी और सेवक मरदाना के साथ बैठे थे।
अचानक उन्होंने वस्त्र उतारे और बिना कुछ कहे वे नदी में उतर गए। मरदाना पूछता भी रहा, क्या करते हैं? रात ठंडी है, अंधेरी है! दूर नदी में वे चले गए। मरदाना पीछे-पीछे गया। नानक ने डुबकी लगाई। मरदाना सोचता था कि क्षण-दो क्षण में बाहर आ जाएंगे। फिर वे बाहर नहीं आए। वह भागा गांव गया, आधी रात लोगों को जगा दिया। भीड़ इकट्ठी हो गई। नानक को सभी प्यार करते थे। उनकी मौजूदगी में सभी को सुगंध प्रतीत होती थी। फूल अभी खिला नहीं था, पर कली भी तो गंध देती है! सारा गांव रोने लगा, भीड़ इकट्ठी हो गई। सारी नदी तलाश डाली और तीसरे दिन रात अचानक नानक नदी से प्रकट हो गए। जब वे नदी से प्रकट हुए तो जपुजी उना पहला वचन है। आचार्य रजनीश कहते हैं कि जपुजी उनकी पहली भेंट है परमात्मा से लौट कर। इस घटना के प्रतीकों को समझ लें कि जब तक तुम न खो जाओ, तब तक परमात्मा से कोई साक्षात्कार न होगा।
तुम्हारा खोना ही उसका होना है। तुम ही अड़चन हो, दीवार हो। तुमको भी खो जाना पड़ेगा; डूबना पड़ेगा। परमात्मा के सामने प्रकट होना, प्यारे को पा लेना, इन्हें बिलकुल प्रतीक को, भाषागत रूप से सच मत समझ लेना। जब तुम मिटते हो तो जो भी आंख के सामने होता है वही परमात्मा है। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है; समस्त भारतीय वांग्मय चीख-चीख कर कहता है कि वह निराकार है। तुम उसके सामने तब जहां तुम देखोगे, वहीं वह है। जो तुम देखोगे, वही वह है। जिस दिन आंखखुलेगी, सभी वह है। बस तुम मिट जाओ, आंख खुल जाए। अहंकार इंसान की आंख में पड़ा कंकर है उसके हटते ही परमात्मा प्रकट हो जाता है। परमात्मा प्रकट ही था, तुम मौजूद न थे। नानक मिटे, परमात्मा प्रकट हो गया। नानक लौटे उस निरंकार का संदेश लेकर फिर उन्होंने जो भी कहा है, एक -एक शब्द बहुमूल्य है। फिर उस एक -एक शब्द को हम कोई भी कीमत दें छोटी पड़ेगी। एक -एक शबिद वेद-वचन हैं।