भाजपा की कमान सौंपा जाना तो मात्र औपचारिकता थी। सोमवार को जेपी नड्डा तीन साल के लिए निर्विरोध अध्यक्ष चुन लिए गये। वैसे गृहमंत्री की जिमेदारी संभालने के बाद अमित शाह ने खुद नड्डा को अपनी जिमेदारी में सहयोग के लिए चुना था। नड्डा जब मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में स्वास्थ्य मंत्री थे तब शाह ने उन्हें केन्द्रीय चुनाव संसदीय बोर्ड में बतौर सदस्य शामिल किया था। निकटता और भरोसे ने भी पार्टी का शीर्ष चेहरा बनने चुनौतीपूर्ण है। पहला, शाह के अध्यक्ष रहते भाजपा ने यूपीए असम और त्रिपुरा में ऐतिहासिक जीत दर्ज की। इसमें पहली बार कहें तो असम और त्रिपुरा को भगवामय करने का श्रेय शाह के संगठन विस्तार की क्षमता को जाता है। दूसरा, इधर भाजपा को झारखण्ड की हार सालने जैसी रही है। महाराष्ट्र में शिवसेना के रूठने से सत्ता जाती रही और हरियाणा में किसी तरह तिकड़म करके खट्टर सरकार की वापसी हो पाई। तो नड्डा को पार्टी की कमान ऐसे समय में मिली है जहां पार्टी को अभी दिल्ली विधानसभा चुनाव में आप से कड़े मुकाबले में उतरना है। जिमेदारी संभालते ही उनके सामने यह पहली चुनौती है।
इसके बाद अगले साल पश्चिम बंगाल और फिर बिहार विधानसभा चुनाव होने हैं। इसी तरह अगले तीन साल तक डेढ़ दर्जन राज्यों में नये अध्यक्ष के उस चुनावी कौशल का टेस्ट होना है, जिसके 11 राज्य भाजपा और राजग के पास ही है जिसे दोहराने का दबाव होगा। इसके अलावा भी आधा दर्जन राज्यों में संभावनाओं की तलाश लंबे समय से चल रही है। वैसे कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में नड्डा को पिछले छह महीने में महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड का चुनाव नजदीक से देखने को मिला है। इसीलिए शाह जैसी सफलता दिलाने का स्वाभाविक रूप से उन पर दबाव भी रहेगा। दबाव इसलिए भी पार्टी अब केन्द्र में बीते साढ़े पांच साल से सत्ता में है। जनता से किए गए वादों को पूरा करने का दबाव भी पार्टी के सामने सवाल के रूप में है। आर्थिक मोर्चे पर देश की हालत चुनौतीपूर्ण है। पांच फीसदी से नीचे की विकास दर मौजूदा आर्थिक वर्ष में है। इसका सीधा मतलब है कि अगले वित्ता वर्ष में आर्थिक मोर्चे पर कुछ उमीद की जा सकती है। ऐसी स्थिति में रोजगार का संकट बढ़ता जा रहा है।
परंपरागत रोजगार के साधनों पर नोटबंदी और जीएसटी का असर है, इस प्रभाव से एक बड़ा असंगठित क्षेत्र कब बाहर निकल पाएगा, यह कहा नहीं जा सकता और जो रोजगार की नई स्थितियां पैदा हो रही हैं, नवाचार के लिए जो वातावरण तैयार किया जा रहा है, उसके लिए लोग ना तो प्रशिक्षित है और ना ही तैयार। ऐसी स्थिति में युवाओं में बढ़ती मोह भंग की स्थिति को ध्यान में रखते हुए पार्टी को आगे ले जाने का नड्डा के सामने बड़ा सवाल है। खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी मानते हैं, उन्होंने सोमवार को पार्टी मुख्यालय में आयोजित कार्यक्रम में कहा भी कि स्थितियां सरल नहीं है। बहुत मेहनत की आवश्यकता होगी। जो विरोध में है वे झूठ और भ्रम के बलबूते सत्ता में वापसी की राह देख रहे हैं। उसका मुकाबला वास्तव में प्रखर कार्यकर्ता के जरिये ही हो सकता है। तो एक तरह से प्रधानमंत्री ने नये अध्यक्ष की भावी चुनौतियों की भी याद दिलाई है। सीएए को लेकर गैर भाजपा राज्यों ने बगावती तेवर अपना लिए हैं वैसा इससे पहले नहीं देखा-समझा गया।
खासतौर पर कांग्रेस शासित राज्य सीएए को लेकर विधानसभा की शक्ति का इस्तेमाल करने से भी गुरेज नहीं कर रहे। ऐसी विकट स्थिति में नड्डा के लिए पार्टी को जीत की राह पर आगे ले जाना आसान नहीं होगा। नड्डा के संगठन कौशल का परीक्षण तो इसी दिल्ली चुनाव से शुरू हो जाएगा। आगे पूरे तीन साल हैं। वैसे तो लोग नड्डा को करीब से जानते हैं उनका मानना है कि कर्मठता के बलबूते ही इस शीर्ष पद तक पहुंचे हैं। विद्यार्थी परिषद से शुरू हुआ सफर भाजयुमो के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद तक पहुंचा और अब भाजपा की शीर्ष कमान उनके पास है। पार्टी को उनसे बड़ी उमीदे हैं। यह देखने वाली बात होगी कि मौजूदा हालात में किस तरह और कितनी उमीदें पूरी कर पाते हैं। वैसे पीएम ने उन्हें यह कहते हुए उम्मीदों से जरूर भरा है कि सत्ता में पार्टी लबे वक्त के लिए आई है।