अंतरजातीय विवाहों को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार ढाई लाख रु. का अनुदान देती है याने यह पैसा उनको मिलता है, जो अनुसूचित जाति या वर्ग के वर या वधू से शादी करते हैं लेकिन खुद होते हैं, सामान्य वर्ग के ! सामान्य का अर्थ यहां ऊंची जाति ही है। याने ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ! इनमें तथाकथित पिछड़े भी शामिल हैं। इस अनुदान-राशि के बावजूद देश में हर साल 500 शादियां भी नहीं होतीं। सवा अरब लोगों के देश की इस हालत को ऊंट के मुंह में जीरा नहीं तो क्या कहेंगे ? इसका एक कारण सरकार ने अभी-अभी खोज निकाला है। वह यह है कि यह अनुदान राशि उन्हीं जोड़ों को मिलती है, जो अपना रजिस्ट्रेशन ‘हिंदू मेरिज एक्ट’ के तहत करवाते हैं।
आर्यसमाज आदि में हुई शादियों को यह मान्यता नहीं है। अब उन्हें मान्य कर लिया जाएगा। यह अच्छा है, सराहनीय है लेकिन इससे भी कौनसा किला फतेह होनेवाला है ? क्या देश के आर्यसमाजों में हर साल हजारों-लाखों शादियां होती हैं ? देश की जातीय-व्यवस्था में परिवर्तन तभी होगा जबकि प्रति वर्ष लाखों शादियां अन्तरजातीय हों लेकिन इस मामले में हमारे नेता लोग ठन-ठन गोपाल हैं, शून्य हैं, बिल्कुल अकर्मण्य हैं। जो उन्हें करना चाहिए, वह वे बिल्कुल नहीं करते।
सबसे पहले नौकरियों से जातीय आरक्षण खत्म करना चाहिए। दूसरा, जातीय आधार पर चुनावी उम्मीदवार तय नहीं करना चाहिए। तीसरा, जातीय नाम या उपनाम रखनेवाले को चुनावी टिकिट नहीं देना चाहिए। चौथा, लोगों से आग्रह करना चाहिए कि वे जातीय उपनाम रखना बंद करें। पांचवां, किसी भी सरकारी कर्मचारी द्वारा जाति या उप-जातिसूचक नाम रखने पर प्रतिबंध होना चाहिए।
छठा, संगठनों, धर्मशालाओं, अस्पतालों और मोहल्लों के जातिसूचक नाम बंद होने चाहिए। सातवां, सबसे बड़ा काम यह है कि मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम का भेद मिटना चाहिए। कुर्सीतोड़ और कमरतोड़ कामों के मुआवजे में अधिक से अधिक 1 और 10 का अनुपात होना चाहिए। सदियों से चली आ रही इस रुढि ने ही देश में ऊंची और नीची जातियों का भेदभाव खड़ा किया है। क्या सिर्फ़ ढाई लाख रु के लालच में ही अंतरजातीय विवाह हो जाएँगे ? हां, इनसे उनकी मदद जरुर हो जाएगी।
डा. वेदप्रताप वैदिक
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)