देशद्रोहियों की सूची बढ़ती जा रही है. अब इसमें नया नाम इन्फ़ोसिस का आ जु़ड़ा है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मुखपत्र माने जाने वाले ‘पांचजन्य’ के जिस लेख में इन्फ़ोसिस को देशद्रोही बताया गया है, उसमें ईमानदारी के साथ स्वीकार किया गया है कि इन्फ़ोसिस पर इस खुले आरोप के प्रमाण लेखक के पास नहीं हैं. लेकिन पांचजन्य के संपादक चुनौती दे रहे हैं कि इन्फ़ोसिस चाहे तो इस तथ्य का खंडन करे.
वैसे यह सच है कि इन्फ़ोसिस का नाम देशद्रोहियों की कतार में आना कुछ अचरज पैदा करता है. इस कंपनी की प्रोफ़ाइल वैसी नहीं है कि इसे देशद्रोही माना जाए. इन्फ़ोसिस के मालिकान अल्पसंख्यक नहीं हैं. वे शायद कोई शिक्षा संस्थान नहीं चलाते. वे ऐसा अख़बार या न्यूज चैनल नहीं चलाते जो सरकार की आलोचना करता हो. उल्टे उन्होंने सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में देश का नाम ऊंचा किया है. इसलिए शक होता है कि पांचजन्य के निशाने पर कोई और व्यक्ति या समूह तो नहीं था और गफ़लत में उसकी जगह इन्फ़ोसिस पर हमला हो गया?
लेकिन अगर यह ग़लती हुई तो संघ परिवार से इसे ग़लती मानने कोई क्यों नहीं आया? संघ ने बस सुविधापूर्वक यह कह दिया कि ‘पांचजन्य’ उसका मुखपत्र नहीं है. लेकिन क्या यह सच नहीं है कि ‘पांचजन्य’ को लगभग मुखपत्र की ही तरह इस्तेमाल किया और माना जाता रहा है? ‘पांचजन्य’ का इतिहास जानने वाले यह जानते हैं कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने इसे प्रारंभिक वर्षों में पाला-पोसा और अटल बिहारी वाजपेयी इसके पहले संपादक रहे. बाद के वर्षों में केआर मलकानी जैसे लोगों ने भी इसका संपादन किया. जाहिर है, आरएसएस बस एक विवाद से बचने के लिए ‘पांचजन्य’ को अपनी आधिकारिक पहचान से जोड़ने से बच रहा है.
यह सोचने में कोई बुराई नहीं है कि क्या ही अच्छा होता कि संघ परिवार से जुड़े लोग, बीजेपी के प्रवक्ता आदि इस वक्तव्य की निंदा करते और बताते कि इन्फ़ोसिस को देशद्रोही बताना असल में देशद्रोह है.
मगर किसी ने ऐसा क्यों नहीं किया? इसलिए कि देशद्रोह का आरोप वह पवित्र लाठी है जो चल जाए तो वापस नहीं ली जाती. आरएसएस इस बात को बेहतर ढंग से समझता है कि ‘पांचजन्य’ के लेख से एक संदेश तो गया ही है. कोई भी व्यक्ति या कंपनी ऐसा काम न करे जिससे सरकार को असुविधा होती हो या उसका नाम ख़राब होता हो- चाहे वह जान-बूझ कर किया जाए चाहे अनजाने में हो जाए. आख़िर सख़्त सरकार की कुछ छवि इस बात से भी बनती है कि जो उसका काम ढंग से न कर सके, उसको बिल्कुल देश का दुश्मन मान लिया जाए.
इस ढंग से देशद्रोही की परिभाषा संघ परिवार से जुड़ी एक पत्रिका ने कुछ और फैला दी है. सबसे पहले इसमें वे लोग आते थे जो किन्हीं आतंकवादी हमलों में शरीक पाए जाते थे. फिर इनमें वे लोग भी आने लगे जो जंगलों में माओवादी युद्ध चलाने लगे. फिर जिन लोगों ने विकास पर सवाल खड़े किए, जो बड़े बांधों या बड़े उद्योगों से विस्थापन को मुद्दा बनाना चाहते रहे, वे भी देशद्रोही कहलाने लगे. इसके बाद इनमें वे लोग भी आने लगे जो बाज़ार के विरुद्ध बोलने लगे. लेखकों के मारे जाने के विरोध में और बढ़ती असहिष्णुता का प्रतिरोध करते हुए जिन लेखकों ने अपने पुरस्कार लौटाए, उन्हें पहले गैंग बताया गया और फिर देशद्रोही क़रार दिया गया. जेएनयू, जामिया और अलीगढ़ विश्वविद्यालय भी देशद्रोह के अड्डे माने गए. फिर इनमें वे लोग भी आने लगे जो दलितों और अल्पसंख्यकों के पक्ष में खड़े होते दिखाई पड़ने लगे.
भीमा कोरेगांव केस में बूढ़े कवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, प्राध्यापकों, वकीलों को गिरफ़्तार किया गया और फिर उनके कंप्यूटरों से एक चिट्ठी निकाल कर साबित करने की कोशिश की गई कि वे तो सीधे प्रधानमंत्री की हत्या की साज़िश कर रहे हैं. देशद्रोहियों की परिभाषा यहीं ख़त्म नहीं हुई. इसके बाद इनमें सरकार के बनाए क़ानूनों का विरोध करने वालों को भी शामिल कर लिया गया. नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ खड़े लोगों को भी देशद्रोही बताया गया और उन्हें दिल्ली के दंगों का ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है. और तो और, इस देश के किसान भी देशद्रोहियों की कतार में खड़े कर दिए गए जो तीन कृषि क़ानूनों का विरोध कर रहे हैं और इन्हें वापस लेने की मांग पर अब भी अड़े हुए हैं. सूची यहीं ख़त्म नहीं होती. कोविड की दूसरी लहर के दौरान ऑक्सीजन सिलिंडर और अस्पतालों की कमी का रोना रोने वाले लोग भी देशद्रोही मान लिए गए. उन पत्रकारों को तो खैर देशद्रोही माना ही जाना था जिन्होंने नदियों किनारे बनी क़ब्रें दिखाईं और बताया कि शवों को जलाने की जगह भी कम पड़ गई है. आख़िर इससे देश की बदनामी हुई.
जिस तरह देशद्रोही बढ़ते जा रहे हैं, उस तरह देशभक्त भी बढ़ते जा रहे हैं. आज़ादी की लड़ाई के दौर में जिन्होंने अंग्रेज़ों से लोहा लिया, उन्हें अंग्रेज़ बाग़ी कहते थे और हिंदुस्तानी लोग देशभक्त. तब इसके लिए गोली खानी पड़ती थी, फांसी पर चढ़ना पड़ता था, बरसों-बरस जेल काटनी होती थी. लेकिन अब देशभक्ति आसान हो गई है. पहले हर बात में ‘भारत माता की जय’ के नारे लगाने वाले देशभक्त माने जाने लगे. फिर गायों का कारोबार करने वालों को गोतस्कर बता कर सड़क पर पीटने वाले भी देशभक्त कहलाने लगे. फिर दलितों को गाड़ी से बांध कर मारने वाले भी देशभक्त हो गए. अल्पसंख्यकों को ग़ाली देना और उन्हें पाकिस्तान जाने की नसीहत देना तो देशभक्ति का बड़ा तमगा जुटाना है. कश्मीर की लड़कियों से शादी करने, वहां ज़मीन खरीदने और छठ मनाने की हुंकार भरना भी देशभक्ति की निशानी हो गया.
अब तो हालत ये है कि स्त्रियों का मज़ाक उड़ाने वाले, उनको गालियां देने वाले भी देशभक्त कहलाने लगे हैं. क्या पता, कल को गौरी लंकेश का हत्यारा पकड़ में आ जाए तो हम यह जानकर प्रमुदित हो जाएं कि वह भी देशभक्त ही निकला. फिलहाल कोविड के समय अपनी मां या दादी के लिए ऑक्सीजन जुटाने की गुहार कर रही लड़की को धमकाने वाले भी देशभक्त माने जा रहे हैं. इन दिनों भी देशभक्त गुस्से में हैं. वे काबुल जाकर तालिबान से लड़ नहीं सकते तो यहां चूड़ी वालों को पीट डालते हैं, ठेले वालों का ठेला उलट देते हैं और बताते हैं कि उनकी देशभक्ति पर कोई शक न करे.
जिस देश में इतनी तरह के देशभक्त और इतने प्रकार के देशद्रोही हो जाएं, उस देश को चलाने के लिए और बड़े देशभक्त चाहिए. कई बार यह देशभक्ति इतनी बड़ी हो जाती है कि देश पर भी भारी पड़ने लगती है. बहरहाल, इस माहौल में इन्फ़ोसिस को देशद्रोही बताना देशभक्तों के कई चुटकुलों की तरह एक चुटकुला ही लगता है. यह अलग बात है कि चुटकुले भी बहुत ख़तरनाक अंत तक ला सकते हैं. दरअसल देशभक्ति और देशद्रोह की परिभाषाएं जब इतनी प्रकार की हो जाएं तो कई बार वे बस धारणाओं के फ़र्क से एक हो जाती हैं. इस टिप्पणी के अंत में स्टालिन के दौर का एक चुटकुला दुहराने की इच्छा हो रही है. स्टालिन से मिलकर एक बड़ा अफ़सर लौट रहा था. कमरे से निकलते ही वह बुदबुदाया, ‘गधा कहीं का.’
दुर्भाग्य से ठीक उसी समय कमरे में दाख़िल होने के लिए आ रहे स्टालिन के सचिव ने यह टिप्पणी सुन ली. वह स्टालिन का वफ़ादार था और उसने तत्काल स्टालिन को यह जानकारी दी. स्टालिन ने फिर उस अफसर को बुलाया- ‘कॉमरेड, कमरे से निकलते वक़्त तुमने जो कहा था, उसे दुहरा सकते हो?’ उस अफ़सर ने दुहरा दिया- गधा कहीं का. स्टालिन ने अपनी आवाज़ संयत रखते हुए कहा कि कॉमरेड, तुमने ये कहा किसे था? अफ़सर ने बहुत संजीदगी से कहा- ‘कॉमरेड स्टालिन, बेशक हिटलर को!’ इसके बाद आगबबूला स्टालिन ने अपने सचिव से कहा- इसने हिटलर को गधा कहा और तुमने मुझे समझ लिया? कहने की ज़रूरत नहीं कि उस देशभक्त-स्टालिनभक्त सचिव का क्या हाल हुआ होगा.
प्रियदर्शन
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)