दुनिया बड़ी-नेताओं की सोच छोटी

0
285

डोनाल्ड ट्रंप नाम के उत्पात और बोझ ने वैश्विक चिंताओं, भूमंडलीकरण को समेट दिया है, यह जी-20 की ओसाका बैठक से फिर जाहिर हुआ है। डोनाल्ड ट्रंप ने क्योंकि चीन की दुकान पर तीन सौ अरब डॉलर की नई कस्टम ड्यूटी का नोटिस लगा रखा है, उन्हें जलवायु परिवर्तन की परवाह नहीं है और ईरान पर सींग ताने हुए हैं तो भला जी-20 में क्या हो सकता था? तभी दुनिया भले गर्मी से बेहाल हो, विश्व व्यापार का बहुमंचीय खाका चरमरा रहा हो, लेकिन जी-20 बैठक में कुछ नहीं हुआ। केवल फोटो शूट और फालतू की बयानबाजी। जी-20 बैठक को डोनाल्ड ट्रंप, पुतिन, शी और सऊदी अरब का प्रिंस हाईजैक किए हुए थे। कितना त्रासद है कि जी-20 के फोटो शूट के सेंटर में ट्रंप-आबे के बीच वे जनाब सऊदी प्रिंस हीरो की तरह खड़े थे, जिन पर अमेरिकी पत्रकार खाशोगी की हत्या का आरोप है। इनके पीछे दूसरी कतार में अपने नरेंद्र मोदी का चेहरा जतला रहा था कि विश्व जमात में भारत कहां है और वहाबी इस्लामी सऊदी अरब का जलवा सवा सौ करोड़ लोगों की भीड़ के आगे कितना आगे है!

बहरहाल विश्व राजनीति अमेरिका-सऊदी अरब-रूस-चीन के यथावत वर्चस्व में फिर मिली। जी -20 की बैठक में पर्दे के पीछे कूटनीति में ले दे कर अमेरिका और चीन में व्यापार की तलवारबाजी को रूकवाने का प्रयास हुआ। चीन के राष्ट्रपति शी ने घिघियाते हुए ट्रंप को मनाने के दांवपेंच चले। तभी ट्रंप ने तलवार को रोक वापिस व्यापार वार्ता शुरू करने का सद्भाव दिखाया। बदले में चीन से उत्तर कोरिया के किम को कसवा कर सोमवार को किम के साथ उत्तर कोरिया-दक्षिण कोरिया की सीमा पर ट्रंप की फोटो शूट का अवसर बनवाया। तभी रविवार को देखने लायक नजारा था लोकतंत्र के गर्भ से निकले अमेरिकी सांड ट्रंप और निरंकुशता के गर्भ जनित उत्तर कोरियाई सांड किम का साथ घूमना।

वैश्विक सरोकार के तकाजे के हिसाब से ट्रंप की दादागिरी के खिलाफ जी-20 के बाकी नेताओं को दबाव बनाना था। ओसाका के घोषणापत्र में कहना था कि अमेरिका पुराने समझौतों, पुरानी एप्रोच को छोड़ते हुए व्यापार की अंतरराष्ट्रीय सहमतियों, संधियों, मुक्त व्यापार की व्यवस्थाओं को ठेंगा दिखा कर सरंक्षणवादी, अलग-अलग देशों से अलग-अलग द्वोपक्षीय व्यापार सौदे जैसे कर रहा है वह घातक है। पर शायद दुनिया के बाकी अमीर देश याकि यूरोपीय, जापान आदि भी चीन को दुरूस्त करने की ट्रंप को मौन सहमति दिए हुए हैं इसलिए जो हो रहा है उसे होने दे रहे हैं।

अपना मानना है कि चीन के साम्राज्यवादी आर्थिक वर्चस्व को तोड़ने के नाते यह सही है। जो हो रहा है वह अच्छा है। डोनाल्ड ट्रंप से यह सुनना अच्छा है कि देखते है चीन से सौदा पटता है या नहीं। चीन ने कहा है कि वह भारी तादाद में अमेरिका से खेतिहर पैदावार खरीदेगा और तुरंत खरीदेगा!

ट्रंप का यह आशावाद बताता है कि चीन मानने लगा है कि बेचना है तो खरीदना भी होगा। दुनिया को मंडी बना उसका एकाधिकार नहीं रह सकता। चीन को बेचने के साथ अमेरिका से उसी अनुपात में सामान खरीदना होगा। ध्यान रहे ट्रंप ने चीनी सामान पर कस्टम ड्यूटी को दस से पच्चीस प्रतिशत बढ़ा चीनी सामान पर दो सौ अरब डॉलर की अमेरिका की वसूली बना दी है। जवाब में चीन ने भी ऐसा ही किया। लेकिन चीन क्योंकि अमेरिका को सामान ज्यादा बेचता है तो उसे ही ज्यादा घाटा हुआ। चीन की फैक्टरियां आज मंदी की मारी हैं। ओसाका की जी-20 की बैठक से पहले ट्रंप ने चीन पर नई तीन सौ अरब डॉलर की डयूटी की धमकी और चस्पां की। यदि ऐसा होता तो चीन का भट्ठा बैठने के साथ पूरी दुनिया के व्यापार पर भी बुरा असर होना था। इसी को रूकवाने के लिए जी-20 बैठक में चीन के राष्ट्रपति शी ने लॉबिंग की और बाकी देशों ने बीच-बचाव और बातचीत की जरूरत बनाई।

इसका यह भी अर्थ है कि जी-20 के बहुमंचीय प्लेटफार्म में भी अब व्यापार को दो देशों की आपसी बातचीत से तय किए जाने वाले मॉडल में बदला मान लिया गया है। डोनाल्ड ट्रंप ने अंतरराष्ट्रीय रिश्तों में व्यापार के मामले को दो देशों की सहमति या क्षेत्र विशेष के देशों के ब्लॉक के समझौतो की और धकेल दिया है। मतलब डब्ल्यूटीओ, गैट, भूमंडलीकरण वाली बातें, व्यवस्थाएं अब पटरी से उतर गई हैं।

सचमुच दुनिया के निर्णायक बडे, भारी-भरकम देशों, अमीर देशों के जी-20 ग्रुप से जाहिर है कि वैश्विक एप्रोच से वैश्विक चिंताओं पर वैश्विक नेता काम करने को अब राजी नहीं। जलवायु परिवर्तन, विश्व व्यापार, आतंकवाद, इमिग्रेशन, मानवाधिकार आदि के तमाम मुद्दे अब विश्व व्यवस्था के अंतरराष्ट्रीकरण के खांचे से बाहर हैं। राष्ट्रवाद ऊपर है और अंतरराष्ट्रीयकरण नीचे। विश्व सभ्यता याकि मानव सभ्यता की समग्र चिंता खत्म है और अलग-अलग सभ्यताओं, राष्ट्र-राज्य के खांचे के आग्रह-दुराग्रह में विश्व नेताओं की सोच कन्वर्ट है। दुनिया आगे बढ़ने के बजाय पीछे लौट रही है। 21वीं सदी की ऐसी दिशा होगी, यह किसी ने सोचा नहीं था। लेकिन ऐसा है तो है! वजह शायद यह है कि दुनिया के लोग इन दिनों अपने-अपने भय, अपन-अपनी चिंताओं में जीवन ज्यादा जी रहे हैं।

हरिशंकर व्यास
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here