तिकड़मों पर कोर्ट खफा

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सुप्रीम कोर्ट ने साफकर दिया है कि कोई अंतहीन तरीके से मुकदमेबाजी नहीं कर सकता। एक दिन पहले सरकार ने भी ऐसी ही बात कही थी। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एसए बोबडें की अगुवाई वाई वाली बेंच ने ने यह महत्वपूर्ण टिप्पणी की है। दरअसल कानूनी दांव-पेच में उलझकर टल रही निर्भया के दोषियों की फांसी पर यह बहस तेज चल पड़ी है और यह धारणा बन गई है कि कानून में दोषी करार दिए शस अपने वकीलों के जरिये फैसलों को लटकाये रखने के लिए विकल्पों का बेजा इस्तेमाल करते हैं। निर्भया मामले में यह सुनिश्चित कोशिश अंतिम फैसले के आने के बाद और तेज हो गई। वैसे ही निर्भया काण्ड को सात साल से ज्यादा हो चुके हैं। तकरीबन सात साल तक मामला इसलिए लटका रहा कि दोषियों से संबंधित फाइल दिल्ली सरकार के यहां धूल खाती रही। कुछ महीने पहले जब यह फाइल गृह मंत्रालय को भेजी गयी तब तेजी दिखी और अंतिम फैसले के बाद फिर मिले कानूनी विकल्पों का रह-रह के इस्तेमाल करने पर फांसी की तारीख टलती रही। अब इसी प्रवृत्ति पर कोर्ट ने नाराजगी जताई है। साफ कहा है कि सजा पाए मुजरिमों को इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि फांसी अंजाम तक नहीं पहुंचेगी। मामले को लटकाने का मामला नया नहीं है। यही वजह है कि देश भर की अदालतों में लंबित मुकदमों का औसत निकालें तो 60 फीसदी से ज्यादा है।

इसमें निश्चित तौर पर न्यायालयों पर मुकदमों का बोझा मात्र इसलिए नहीं बढ़ रहा कि जरूरत के लिहाज से जजों के पद नहीं भरे जा रहे, बल्कि बड़ी वजह यही निकलकर सामने आती है कि अदालतों में एक ऐसा गठजोड़ बरसों से वजूद में है, जिसकी शह पर तारीखों का अंतहीन सिलसिला बना रहता है। इसमें गंभीर किस्म के अपराध और राजस्व विवाद के मामले सर्वाधिक हैं। वकील, पेशकार और जजों के अपने हित मामले को लटकाने में बड़ी भूमिका निभाते हैं। तहसील, जिला स्तर से लेकर उच्च न्यायालयों तक सुनवाई के नाम पर फैसलों को उलझाये रखने का कुचक्र चलता रहा है। जाहिर है, इसके मूल में भ्रष्टाचार है जिसे सब मिल-जुलकर अंजाम देते हैं, इसमें जिसकी जेब जितनी भारी, फैसला उसके उतना ही करीब होता है। कोर्ट स्टे जैसे उपाय इसी उद्देश्य से आजमाये जाते हैं। हालांकि न्याय में देरी को लेकर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व प्रधान न्यायाधीशों ने समय-समय पर चेताया है। एसए बोबडे से पहले प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई ने ग्रीष्मकालीन अवकाश में भी पुराने मामलों को निपटाने की बात की थी। उच्च न्यायालयों को इस बाबत दिशा-निर्देश दिये गये थे। यह भी तब संज्ञान में आया था कि मामलों की प्रवृत्ति के हिसाब से विशेष न्यायालयों का गठन हो।

वैसे भी राजस्व विवादों की बढ़ती संख्या पर लगाम लगाने के लिए लोक अदालतों के आयोजनों की रफ्तार बढ़ाई जाए तो मुकदमों का बोझ काफी हद तक कम हो सकता है। भारतीय न्यायिक प्रक्रिया के तौरतरीकों पर अध्ययन करने वाली गैर सरकारी संस्थाओं की मानें तो असल जड़ तहसील स्तरीय अदालतों में पैबस्त है, जहां निपटारकम, मामलों को खींचने का कुचक्र चलता रहा है। सत्र न्यायालय तक पहुंचते-पहुंचते आस टूटने लगती है और फैसला विपरीत हुआ तो उच्च न्यायालय ऐसे लोगों के लिए पसंदीदा सेंटर होता है। बरसों गुजर जाते हैं मामलों की फाइल नहीं खुलती। प्रभावशाली तबका इसका खूब फायदा उठाता है। जहां तक मसला रेप जैसे संवेदनशील मसले का है तो हाल में यह पहल कारगर हुई है कि इसके लिए गठित फास्ट ट्रैक कोर्ट के जज सिर्फ रेप के मामलों की ही सुनवाई करेंगे। इससे फैसले की रफ्तार भी बढ़ रही है। अभी पिछले महीने ही एक मासूम बच्ची संग हुए रेप के मामले में फास्ट ट्रैक कोर्ट में सुनवाई हुई और चार महीने के भीतर फैसला हो गया। मध्य प्रदेश में भी इस तरह के मामले में छह महीने के भीतर ही फैसला सुना दिया गया था। हालांकि इसमें पुलिस की कार्यप्रणाली को भी चुस्त-दुरूस्त करने की जरूरत है। जाहिर है, अब पुलिस कर्मियों को साक्ष्य के लिए जिला स्तर पर फोरेंसिक लेबरोट्रीज और डीएनए जांच के इन्फ्रास्ट्रक्चर भी चाहिए होगा। ऐसे मामले लंबा खिंचने पर दम तोड़ते रहे हैं।

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