यह सच है कि अफग़़ानिस्तान में तालिबान की हुकूमत वहां की जनता के लिए किसी दुस्वप्न से कम नहीं. वहां फिर इस्लाम और शरीयत के नाम पर ऐसे क़ानून थोपे जा रहे हैं, जिनका समानता, स्वतंत्रता और विवेक से वास्ता नहीं दिखता है। लेकिन भारत यों डरा हुआ है? क्या जो जिन्न हमारे दरवाज़े पर नहीं है, उसे जान-बूझ कर बिल्कुल घर में आया बताया जा रहा है? अचानक कश्मीर के बदलते हालात की इतनी ज़्यादा चर्चा यों हो रही है? निस्संदेह काबुल में तालिबान के आने से अफग़़ानिस्तान के साथ भारत का जो सहज और सदियों पुराना रिश्ता है, वह कमज़ोर पड़ता है। तालिबान और भारत स्वाभाविक दोस्त नहीं हो सकते। तालिबान के साथ किसी मजबूरी में संवाद करना ही पड़े तो वह एक बात है, लेकिन उसके साथ स्वस्थ पड़ोसी का दीर्घकालीन रिश्ता आसानी से संभव नहीं लगता। बेशक, तालिबान को लेकर भारत की एक गांठ भी है। साल 2000 में कांधार विमान अपहरण कांड में तालिबान की भूमिका पूरी तरह भारत विरोधी रही थी। तब की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के विदेश मंत्री जसवंत सिंह अपने साथ तीन आतंकियों को कांधार लेकर जाकर छोडऩे को मजबूर हुए थे।
लेकिन तब हमें तालिबान से मदद की उमीद यों करनी चाहिए थी? आखिर 1996 से उसकी सरकार चल रही थी और हमने उससे किसी कि़स्म का संबंध नहीं रखा था। सच तो यह है कि कांधार में हफ़ते भर से ज़्यादा चले ड्रामे की वजह से वाजपेयी सरकार की वह नाकामी छुप गई जिसकी वजह से यह विमान कांधार पहुंच पाया थाष यह अपने-आप में जांच का विषय है कि जब यह विमान अमृतसर में ईंधन भराने उतरा था तब उसे रोका यो नहीं जा सका? वह किस सरकार की नाकामी थी? बहरहाल, तालिबान पर लौटें। कांधार वाले प्रसंग को छोड़ दें तो 1996 से 2001 तक अफग़़ानिस्तान में शासन करते हुए तालिबान ने कभी भारत के लिए समस्या खड़ी की हो, यह ध्यान नहीं आता। इसलिए नहीं कि वे अच्छे लोग हैं, इसलिए कि उन्हें अपनी ही समस्याओं से जूझने से वत नहीं मिल रहा था। उनके लक्ष्य दूसरे थे, उनकी निगाहें कहीं और थीं। इस बार भी काबुल में आने से पहले तालिबान यह भरोसा दिलाने की कोशिश करता रहा है कि वह किसी दूसरे देश को नुक़सान पहुंचाने के लिए अपनी ज़मीन का इस्तेमाल नहीं होने देगा।
यह बात नई सरकार के गठन के तत्काल बाद जारी उसके घोषणापत्र में भी है बेशक, तालिबान पर भरोसा नहीं किया जा सकता। इसलिए भी कि तालिबान अब तक एक ढीला-ढाला सैनिक समूह ही है जो कई गुटों में बंटा है और जिसे यह नहीं मालूम है कि करना क्या है? इसके अलावा ख़ुद को वैचारिक तौर पर तालिबान के कऱीब मानने और बताने वाले अल क़ायदा और आइएस जैसे संगठन इस्लाम के नाम पर किसी भी ख़तरनाक मूर्खता के लिए कभी भी तैयार हो सकते हैं. इसलिए हर हाल में तालिबान से सावधान रहने की ज़रूरत है। लेकिन तालिबान को फौरन कश्मीरी आतंकवाद से जोडऩे से किन लोगों के हित सध रहे हैं? वे कौन हैं जिन्हें अचानक पता चल गया है कि जैश और लश्कर तो अब अफग़़ानिस्तान के शहरों को ठिकाना बना रहे हैं और वहां से हमें निशाना बना सकते हैं? सच तो यह है कि भारत के लिए कश्मीर के लिहाज से ज़्यादा बड़ा संकट पाकिस्तान ही है। बेशक, काबुल में तालिबान की मौजूदगी भारत से कहीं ज़्यादा पाकिस्तान के लिए संकट का सबब है। बल्कि वह अफग़़ानिस्तान में जितना दखल देगा, उतना ही खुद भी घिरता जाएगा।
जहां तक कश्मीर का सवाल है, दरअसल यह काबुल नहीं, हमारा डर है जो हमें और डरा रहा है। यह सच है कि कश्मीर में अनुच्छेद 370 को हटाए जाने के बाद से हालात सामान्य नहीं हो पाए हैं। पहले राजनीतिक गिरफ़तारियों का दौर चला और अब भी कई तरह की पाबंदियां हैं। हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी के देहांत के बाद भी सरकार को कुछ रोक लगानी पड़ी। ऐसे में यह डर स्वाभाविक है कि अंदरूनी असंतोष कहीं बाहर की हवा से और भड़क न जाए। लेकिन इस डर को दूर करने का तरीक़ा तालिबान का विशालकाय पुतला बनाना क्या कश्मीर को और ज़्यादा बंद करना नहीं है। दरअसल कश्मीर में राजनीतिक और आर्थिक प्रक्रियाओं के ज़रिए ही शांति पैदा की जा सकती है।
यह अच्छी बात है कि सरकार कश्मीर में लोगों से जुडऩे की पहल शुरू कर रही है। लेकिन उसे लोगों का भरोसा जीतना होगा। जबकि यह काम आसान नहीं। बरसों से छलनी आत्माएं इतनी आसानी से आपका हाथ नहीं थाम लेंगी। यह एक लंबी प्रक्रिया है जिसे बहुत ईमानदारी से चलाना होगा। संकट यह है कि पिछले कुछ वर्षों में केंद्र की एनडीए सरकार कश्मीरियों के इस भरोसे पर खरी नहीं उतरी है। वहां पीडीपी के साथ सरकार बनाने से लेकर उसे देशद्रोही बताने और उसके नेताओं को गिरफ़तार करने तक उसने बहुत रंग बदले हैं। प्रशासनिक सख़्ती में भले वह कामयाब रही हो, लेकिन राजनीतिक भरोसा जीतने में वह नाकाम रही है। यह भरोसा जीतकर ही कश्मीर को जोड़ा जा सकता है और काबुल के भूत का डर हटाया जा सकता है।
प्रियदर्शन
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)