डूबती इकॉनमी और उछलता शेयर बाजार

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हिंदी सिनेमा का एक गीत है, ‘आग लगे हमरी झोपड़िया में हम गावैं मल्हार, देख भाई कितने तमाशे की जिंदगानी हमार’। आजकल शेयर बाजार, सोने का भाव और बैंकों में जमा संबंधी आंकड़ों को देखकर यह गीत बार बार याद आता है। सोने के भाव और फिक्स्ड डिपॉजिट का बढ़ना तो मौद्रिक डर से जुड़ा है। कोरोना काल में यह अर्थव्यवस्था को जितना भी नुकसान पहुंचाता हो, इसके पीछे का सामान्य तर्क समझा जा सकता है। लेकिन सामान्य गणित से यह समझना मुश्किल है कि जब अर्थव्यवस्था के गिरने के चौतरफा संकेत हों और खेती छोड़कर किसी भी क्षेत्र का सहारा न दिखता हो, तब उस बाजार में किस उम्मीद से तेजी है, जो बजट के एक प्रावधान से या मानसून के समय पर आने, न आने से चढ़ता-गिरता रहा है। हालांकि रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास का मानना है कि बाजार में ‘करेक्शन’ निश्चित रूप से आएगा, लेकिन बताया नहीं जा सकता कि कब।

सबसे बड़ी गुत्थी उदारीकरण ने कई पदों के अर्थ बदले हैं। करेक्शन भी उनमें से एक है। बाजार चढ़े तो टेक्निकल करेक्शन का मतलब वह नीचे आएगा। बाजार गिरे तब करेक्शन का मतलब है कि गिरावट कम होगी, बाजार कुछ चढ़ेगा। पर दास बाबू का मानना है कि बाजार की मौजूदा तेजी का मतलब है, निवेशकों को भरोसा है कि बाजार में बिकवाली का बड़ा दौर नहीं आएगा, भले ही वह अभी अपने शीर्ष स्तर से आठ-नौ फीसदी नीचे है। असल में गुत्थी यही है कि जब बाजार अभी भी मार्च के या जनवरी के स्तर से नीचे है (और वह स्तर भी कौन से ठोस आर्थिक कारणों से बना था उसे समझना मुश्किल है) तब उसमें इस रफ्तार में पैसा क्यों लग रहा है?

अर्थव्यवस्था की दुर्गति जनवरी में भी दिखने लगी थी। भले ही तेल कीमतों में गिरावट के कारण व्यापार घाटा कम रहा हो और टैक्स बढ़ाते जाने से सरकारी राजस्व में ज्यादा कमी न दिखती हो, पर बाकी क्षेत्रों का हाल बुरा था। चारों तरफ के अनुमान बताने लगे थे कि अर्थव्यवस्था सिकुड़ने जा रही है। हालांकि ऐसा पक्के तौर पर नहीं कहा जा रहा था, लेकिन यह सभी मानने लगे थे कि जो सरकारी अनुमान बजट या रिजर्व बैंक वगैरह के माध्यम से सामने आ रहे हैं, वे पूरे नहीं होने वाले।

बहरहाल, अर्थव्यवस्था आज तो गोते खा रही है और उसकी सिकुड़न पांच फीसदी रहेगी या नौ-दस फीसदी, इस पर बहस चल रही है। कुछ क्षेत्र तो एकदम ‘साफ’ हो गए हैं। पर्यटन और विमानन के कारोबार, होटल और रेस्तरां का धंधा कब पटरी पर आएगा, इसका भरोसा नहीं। तब तक रेल से लेकर हवाई अड्डों तक क्या बचेगा, यह सवाल अलग है। सारे उदारीकरण और सारी न्यू इंडिया, मेक इन इंडिया, स्मार्ट सिटी योजनाओं के बाद भी आज सरकार से लेकर आर्थशास्त्री तक सभी मुक्ति की उम्मीद उस खेती-किसानी और पशुपालन से लगाए बैठे हैं जिसकी लगातार उपेक्षा होती रही है और जिसका जीडीपी में योगदान सिमटता ही गया है। जिन कंपनियों का बड़ा शोर था या है, उनके घाटे का रेकॉर्ड आतंक पैदा करता है। इनमें वोडाफोन, एयरटेल और बीएसएनएल या विमानन की चमकदार कंपनियां तो हैं ही, वे सारे बैंक भी हैं जिन पर हम आंख मूंदकर भरोसा करते आए हैं। किस ऑटोमोबाइल कंपनी और आईटी कंपनी में कितनी छंटनी हो रही है, यही चर्चा है। दूसरों की क्या कहें, मीडिया भी इससे नहीं बचा है। आर्थिक मंदी के चलते लगभग सभी मीडिया हाउस पस्त नजर आ रहे हैं।

जब कोरोना बम फूटा तो बाजार स्वाभाविक रूप से धड़ाम हुआ। निवेशकों के कितने लाख करोड़ स्वाहा हुए, यह हिसाब यहां लगाने का लाभ नहीं। बाजार धीरे-धीरे धीरे होश में भी आने लगा। लेकिन तभी दूसरा बम फूटा कि चीन अपनी कुछ निवेश कंपनियों के माध्यम से सीधे या परोक्ष रूप से हमारे कुछ बैंकों समेत कई अच्छी कंपनियों के शेयर उठा रहा है क्योंकि बाजार में अभी सबसे कम कीमत पर इनके शेयर उपलब्ध हैं। हाय-तौबा मची। तभी चीन ने लद्दाख से लेकर अरुणाचल तक कई जगह घुसपैठ कर ली और हमारे सैनिक मारे गए। इस बार ज्यादा बड़ा शोर मचा। चीन की सैनिक और कूटनीतिक घेरेबंदी के साथ आर्थिक घेरेबंदी शुरू हुई।

पहला शिकार बने मोबाइल के लगभग पांच दर्जन ऐप। कुछ ठेके भी रोके गए। कई अंतरराष्ट्रीय निविदाओं की शर्तें बदली गईं। उद्योग एवं अंतरराष्ट्रीय व्यापार संवर्द्धन विभाग ने पाकिस्तान और बांग्लादेश की जगह भारत की जमीनी सीमा से लगे सभी पड़ोसी देशों (पढें, चीन) से आने वाले निवेश पर निगरानी शुरू की। फिर यह चर्चा भी आई कि बाहरी देशों से संचालित साझा कोषों और निवेश फंडों के मार्फत चीन हमारी कंपनियों पर अपने दांत गड़ा रहा है। इसी के मद्देनजर अब व्यापार संवर्द्धन विभाग चीन से आए निवेश के कई बड़े प्रस्तावों पर सख्ती करता लग रहा है।

कंपनियों पर नजर शेयर बाजार का मतलब सट्टा बाजार नहीं होता। पर अपने यहां आम बोलचाल में इसे अभी भी सट्टा बाजार कहा जाता है। यह सही है कि आज दुनिया में निवेश योग्य काफी धन अवसर तलाश रहा है और हमारे यहां भी शेयर बाजार की तेजी का एक कारण वह है। पर कोई भी निवेश बिना आर्थिक तर्क के तो नहीं हो सकता। और अगर बाजार के रुख पर रिजर्व बैंक के गवर्नर को, जो वित्त सचिव भी रहे हैं, भरोसा नहीं है तो साफ लगता है कि बाजार कुछ बड़े खिलाड़ियों के हाथ की कठपुतली बन गया है। वे सिर्फ नकली तेजी या गिरावट से माल बनाने में ही नहीं लगे हैं, उनकी नजर हमारी कंपनियों पर भी है। इसलिए प्रत्यक्ष निवेश के फैसलों में जो सीधी पहचान के साथ आ रहा है उसके साथ तो सख्ती हो और जो पी-नोट्स जैसी अभी भी चल रही व्यवस्थाओं के माध्यम से पहचान छुपाकर बाजार का खेल खेल रहा है उसे खुली छूट मिली रहे, यह ठीक नहीं है।

अरविंद मोहन
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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