झारखंड : जात ही पूछो वोटर की

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झारखंड में पांच चरणों में हो रहे विधानसभा चुनाव के रूझानों का अंदाजा इस बात से नहीं लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कितनी रैलियां हुईं या भाजपा अध्यक्ष अमित शाह कितनी जगह क्या-क्या बोले या राहुल गांधी ने क्या भाषण दिया। कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने या अयोध्या में राम मंदिर बनवाने से लेकर सारे घुसपैठियों को पांच साल में देश से बाहर निकाल देने का भाजपा नेताओं का दावा इस बात की गारंटी नहीं कर पा रहा है कि लोग भावना में बह कर उसे वोट दे देंगे। राहुल गांधी का देश की आर्थिक बदहाली बताना भी झारखंड के लोगों की सोच को बहुत प्रभावित कर देगा, यह भी नहीं कहा जा सकता है।

असली चीज जाति और धर्म है। चुनाव को समझना हो तो सबसे पहले जाति का समीकरण समझना होगा और बहुत बारीकी से यह देखना होगा कि किस पार्टी ने कितनी जातियों का कैसा समीकरण बनाया है। इसमें भी सिर्फ इतना समझने से काम नहीं चलेगा कि अमुक क्षेत्र में आदिवासी हैं और अमुक क्षेत्र में गैर-आदिवासी। इसकी बजाय यह देखना होगा कि आदिवासी चर्च के असर वाला है या सरना यानी हिंदू आदिवासी है। गैर आदिवासी, ओबीसी, दलित और प्रवासियों में भी जाति देखनी होगी।

हालांकि यह कोई पहला मौका नहीं है, जब बिहार से अलग हुए झारखंड में जाति इतनी अहम भूमिका निभाने वाली है पर इस बार कई कारणों से जातीय गोलबंदी सामान्य से ज्यादा अहम हो गई है। पिछले चुनाव में भाजपा सबसे ज्यादा लोगों की पसंद थी तो उसके कई कारण थे। नरेंद्र मोदी को लेकर लोगों में उत्सुकता थी और उनका राज देखने की चाहत थी। ऊपर से भाजपा ने यह नहीं कहा था कि वह गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री बनाएगी। इसलिए समान रूप से आदिवासी और गैर आदिवासी दोनों के वोट उसे मिले। इस बार यह तय है कि भाजपा जीती तो गैर-आदिवासी और उसमें भी वैश्य समाज के रघुवर दास मुख्यमंत्री होंगे। जैसे ही भाजपा ने यह घोषित किया, उसका वोट आधार सीमित हो गया। वैश्य बनाम दूसरी जातियों का अंतर्विरोध या कास्ट फॉल्टलाइन खुल कर सामने आ गई और उसके लिए भारी पड़ने लगी।

रघुवर दास के नाम की घोषणा के साथ ही भाजपा का कोर वोट आधार 14 फीसदी का हो गया। इसके अलावा दूसरी जातियों के वोट भी भाजपा को जरूर मिलेंगे पर वह कई दूसरी स्थितियों पर निर्भर करेगा। भाजपा पहले मान रही थी कि उसे वैश्य, कुर्मी और सवर्ण वोट थोक में मिलेगा। यह करीब 45 फीसदी वोट है। पर लोकसभा चुनाव से यह समीकरण बिगड़ गया। लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अपने एकमात्र कुर्मी सांसद रामटहल चौधरी की टिकट काट कर वैश्य समाज के संजय सेठ को रांची से लड़ाया। इसी तरह अपने इकलौते भूमिहार सांसद रविंद्र राय की टिकट काट कर उनकी कोडरमा सीट पर राजद की नेता अन्नपूर्ण यादव को चुनाव लड़ाया। साथ ही दो ब्राह्मण सांसदों में से एक रविंद्र पांडेय की टिकट काट दी गई।

पुराने और बुजुर्ग नेता राम टहल चौधरी की टिकट काटने से होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए भाजपा ने अपनी सहयोगी आजसू को गिरिडीह की सीट दी, जहां से उसके कुर्मी नेता चंद्रप्रकाश चौधरी चुनाव लड़े। पर अब आजसू भी भाजपा से अलग हो गई है। आजसू को सीट देने के लिए भाजपा ने रविंद्र पांडेय की टिकट काटी और यादव वोट साधने के लिए रविंद्र राय को टिकट नहीं दी। इससे ब्राह्मण और भूमिहार दोनों नाराज हुए। आदिवासी पहले से इस बात को लेकर नाराज थे कि भाजपा ने गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री बनाया। ऊपर से राज्य सरकार ने आदिवासी जमीनों के मालिकाना हक से जुड़े दो कानूनों- संथालपरगना टेनेंसी एक्ट और छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट को बदल दिया। आदिवासी इलाकों में हुआ पत्थलगड़ी आंदोलन इस नाराजगी की मिसाल है। इस तरह भाजपा ने आदिवासी, कुर्मी और सवर्ण वोट के बड़े हिस्से को नाराज किया है और साधा सिर्फ वैश्य वोट!

दूसरी ओर जेएमएम, कांग्रेस और राजद का गठबंधन है। पिछली बार जेएमएम और राजद साथ लड़े थे और कांग्रेस अकेले लड़ी थी। उस चुनाव में जब भाजपा को हर जाति के वोट मिल रहे थे और नरेंद्र मोदी की पहली लहर थी तब भी 14 विधानसभा की सीटें ऐसी थीं, जहां कांग्रेस और जेएमएम का वोट भाजपा के वोट से ज्यादा था। पर चूंकि दोनों अलग अलग लड़े थे इसलिए भाजपा उन सीटों पर जीती। इस बार उनके साथ लड़ने से वोटों का ध्रुवीकरण होता दिख रहा है। विपक्षी गठबंधन की असली ताकत आदिवासी और अल्पसंख्यक वोट हैं। बहुसंख्यक आदिवासी, ईसाई और मुस्लिम इस गठबंधन को वोट देते लग रहे हैं। राजद को सात सीटें देने का फायदा भी इस गठबंधन को हो सकता है। लालू प्रसाद रांची के ही अस्पताल में हैं और वे भाजपा की यादव राजनीति को फेल करने का तानाबाना बुन रहे हैं। तभी यह आम धारणा है कि लोकसभा की तरह यादव वोट एकतरफा होकर भाजपा के पाले में नहीं जा रहा है।

मुख्यमंत्री के अपने जातिगत आग्रहों की वजह से भाजपा ने ऐसे आक्रामक होकर वैश्य राजनीति की है, जिससे दूसरी जातियों में एक तरह की दूरी बढ़ी है। ध्यान रहे भाजपा ने एक दर्जन से ज्यादा विधायकों की टिकट काटी पर किसी वैश्य विधायक की टिकट नहीं कटी। झारखंड में जातियों के संघर्ष का भी एक इतिहास रहा है। राज्य की बड़ी आबादी ऐतिहासिक रूप से साहूकारों से परेशान रही है। चिरूडीह कांड इसी से जुड़े आंदोलन का हिस्सा था, जिसमें शिबू सोरेन आरोपी थे। झारखंड मुक्ति मोर्चा और शिबू सोरेन का शुरुआती संघर्ष भी सूदखोर साहूकारों के खिलाफ ही रहा है। यह इतिहास भी लोगों के वोटिंग व्यवहार को प्रभावित करेगा।

भाजपा के लिए उम्मीद की किरण इस हकीकत में है कि राज्य में आदिवासी बनाम गैर- आदिवासी की एक ग्रंथि हमेशा काम करती रही है। चूंकि विपक्षी गठबंधन ने हेमंत सोरेन को मुख्यमंत्री पद का दावेदार बनाया है इसलिए भाजपा और उसके चुनाव प्रबंधक इस ऐतिहासिक ग्रंथि को उभार कर गैर-आदिवासी वोट एकजुट करने का प्रयास कर रहे हैं। हेमंत सोरेन की ‘बाहरी भगाओ’ की राजनीति का भय भी दिखाया जा रहा है। कुछ इलाकों में इसका फायदा भाजपा को मिल सकता है तो कुछ जगह जेएमएम गठबंधन को लाभ होगा।

अजीत द्विदेवी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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