जेएनयू में आपातकाल कहने वालों का सच

0
211

सीपीएम के महासचिव सीताराम येचुरी और सीपीआई के महासचिव डी.राजा ने कहा है कि जेएनयू के छात्रों पर जिस तरह लाठीचार्ज हुआ है उसने आपातकाल की याद ताज़ा करा दी है। यह कह कर इन दोनों ने खुद को आपातकाल से लड़ने वाले योद्धाओं की तरह पेश किया है। सब जानते हैं कि सोवियत संघ के इशारे पर सीपीआई और उस के स्टूडेंट विंग आल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन ने आपातकाल का समर्थन किया था।

जेएनयू में भी एआईएसऍफ़ ने चुप्पी साध ली थी। सीपीएम ने जरुर आपातकाल का विरोध किया था लेकिन वह भी इतना नहीं था कि उस के नेता खुद को आपातकाल से लड़ने वाला योद्धा कह सकें। सीताराम येचुरी तो उस समय जेएनयू के छात्र थे , क्या वह बता सकते हैं कि वे किस जेल में थे, या उन्होंने किस दिन जेएनयू में प्रदर्शन करने की हिम्मत की थी।

आपातकाल के खिलाफ संघर्ष के लिए जेएनयूंको नहीं, बल्कि दिल्ली यूनिवर्सिटी को याद किया जाता है जिसके अध्यक्ष अरुण जेटली को गिरफ्तार करके तिहाड़ जेल में रखा गया था। सीपीएम के कुछ नेता जेलों में जरुर थे , लेकिन वे आपातकाल के खिलाफ आरएसएस की तरह सत्याग्रह कर के जेलों में नहीं गए थे , एसऍफ़आई के छात्रों की गिरफ्तारी के भी कोई प्रमाण नहीं हैं।

सीताराम येचुरी ने खुद को आपातकाल का योद्धा साबित करने के लिए इंदिरा गांधी के खिलाफ एक जलूस और प्रदर्शन का फोटो जारी किया है , लेकिन यह फोटो आपातकाल हटने और इंदिरा गांधी के चुनाव हार जाने के बाद का है। वह प्रदर्शन भी आपातकाल लगाने वाली इंदिरागांधी के खिलाफ नहीं , अलबत्ता जेएनयू की कुलाधिपति इंदिरा गांधी के खिलाफ था , जो अपने घर के बाहर प्रदर्शन कर रहे छात्रों से बाहर आ कर मिली थीं तब सीताराम येचुरी ने उन के सामने मांग पत्र पढ़ा था जिसमें उन के इस्तीफे की मांग थी , यह मांग सुनने के बाद इंदिरा गांधी ने कुलाधिपति पद से इस्तीफा दे दिया था।

2019 का लोकसभा चुनाव हारने के बाद वामपंथी दलों ने मोदी सरकार के खिलाफ देश भर में छात्रों को लामबंद करने की जिम्मेदारी एसएफआई और एआईएसऍफ़ को दी है। इनकी पहली रणनीति मोदी सरकार की कार्यशैली को आपातकाल वाली शैली बता कर उसे तानाशाही बताना है। लोकतंत्र इस देश की जनता के खून में रच बस गया है , अगर मोदी की कार्यशैली तानाशाहीपूर्ण है तो निश्चित ही उसे लोकतंत्र में स्वीकार नहीं किया जाएगा , जैसे देश की जनता ने 1977 के चुनाव में स्वीकार नहीं किया था। लेकिन देश की जनता आरोप लगाने वालों का ट्रेक रिकार्ड भी देखेगी , इसलिए आपातकाल में चुप्पी साधने वाले वामपंथी दलों ने अपना रिकार्ड ठीक करने की मुहीम शुरू की है|

एसऍफ़आई की मलयालम में एक वेबसाईट है “बोधी कामन्स” ,इस वेबसाईट ने इमरजेंसी फाईल्स नाम से एक सीरीज शुरू की है , जिसमें बताया जा रहा कि किस तरह जेएनयू में एसऍफ़आई के छात्रों ने आपातकाल के खिलाफ संघर्ष किया था। पहली क़िस्त में आठ जुलाई 1975 की घटना का जिक्र किया गया है , जब सुबह पांच बजे पुलिस ने छापा मार कर 60 छात्रों को हिरासत में लिया था , इन में से 15 को गिरफ्तार किया गया|

एसऍफ़आई का दावा है कि गिरफ्तार किए गए 4 छात्र उन के सदस्य थे या सदस्य रहे थे , लेकिन इस इमरजेंसी फाईल में उन चार छात्रों का नाम नहीं बताया गया। फाईल के साथ जो तथाकथित पेम्फलेट दस्तावेजी सबूत के तौर पर लगाया गया है , उस में कहीं भी आपातकाल के खिलाफ संघर्ष करने का जिक्र नहीं है , अलबत्ता आपात स्थिति का फायदा उठा कर जेएनयू में छात्र संघ में सदस्यता को स्वैच्छिक किए जाने की आलोचना और उस के खिलाफ संघर्ष की बात कही गई है।

खैर आपातकाल के खिलाफ जय प्रकाश नारायण का संघर्ष जेएनयू के वामपंथी छात्रों के ताजा संघर्ष की तरह हिंसक और देश तोड़ने वाला नहीं था अठारह नवम्बर को दिल्ली की सडकों पर वामपंथी छात्रों ने जिस तरह हिंसा का मुजाहिरा किया वह लोकतांत्रिक देश में कभी बर्दाश्त नहीं किया जाएगा , भले ही वह मोदी सरकार की तानाशाही के खिलाफ हो|

वैसे भी छात्रों की फीस वृद्धि का न लोकतंत्र से कुछ लेना देना है , न तानाशाही से| छात्रों के नारे देख कर कोई भी अनुमान लगा सकता है कि होस्टल की फीस वृद्धि तो एक बहाना है , छात्रों को मोदी सरकार के खिलाफ संसद घेरने के लिए इस्तेमाल किया गया। एक टीवी बहस में वामपंथी प्रतिनिधि इफरा ने दो टूक शब्दों में कह दिया कि दिल्ली की सडकों पर छात्रों का गुस्सा असल में 370 हटाए जाने के खिलाफ है।

अजय सेतिया
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here