जीने के लिए मरने का अनुभव!

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हमारे किसी चैनल पर आने वाले एक अपराध सीरियल के पहले एंकर जोर-जोर से कहता है कि अगर सोना है तो जाग जाइए। हाल ही में एक ऐसी घटना का पता चला कि अगर जीना है तो मर जाइए। उसके मुताबिक दक्षिण कोरिया के लोग इस निष्कर्ष पर पहुंचे है कि अगर वे एक सार्थक जिंदगी जीना चाहते हैं तो उन्हें कुछ समय के लिए मरने का अनुभव करना चाहिए। इससे आपके अपने मन में जिदंगी का महत्व व उसकी प्रति प्रेम पैदा होता है।

एशियाई देश दक्षिण कोरिया के लोग बहुत तेजी से अवसाद का शिकार हो रहे हैं। यह कोई गरीब या पिछड़ा हुआ देश नहीं है बल्कि वह दुनिया का ऐसा देश हे जिसकी गिनती सबसे विकसित देशों में होती है व वहां के लिहाज से 11वें स्थान पर है। वहां नौकरीपेशा लोगों में अवसाद इतना ज्यादा फैल चुका है कि दुनिया में सबसे ज्यादा लोग आत्महत्याएं वही कर रहे हैं। दुनिया में आत्महत्या करने का अधिकतम औसत प्रति एक लाख लोग पर 10.53 का है। जबकि दक्षिणी कोरिया में प्रति एक लाख जनसंख्या पर 20.2 लोग आत्महत्याएं कर रहे हैं। इसलिए लोगों में जिदंगी के प्रति प्यार व उत्साह पैदा करने के लिए वहां की एक कंपनी ने जिंदा लोगों के लिए अंतिम संस्कार की सेवा शुरू की है।

करीब सात साल पहले 2012 में वहां की एक कंपनी ह्योवोन हीलिंग सेंटर ने मुफ्त में अंतिम संस्कारों की सेवा जीवित लोगों के लिए शुरू की जबकि मौत का अनुभव करवाकर लोगों के मन में जिदंगी के प्रति प्यार पैदा किया जा सके। ध्यान रहे कि दक्षिणी कोरिया वह देश है जहां सैमसंग, एलजी, हुंडाई सरीखी कंपनियां अपने उत्पादो के कारण दुनिया में छाई हैं व इसे दुनिया की इलैक्ट्रॉनिक राजधानी कहा जाता है।

यह कंपनी हर हफ्ते में कई बार अंतिम संस्कारों के कार्यक्रम आयोजित करती है व इसमें आम युवा लोगों से लेकर 95 साल के बुजुर्ग तक हिस्सा लेते हैं। यह देश बेहतर जीवन स्तर के अनुसार दुनिया के सबसे अच्छे 40 देशों में से 33वें नंबर पर आता है। वहां रोजगार व अच्छे जीवन के जितने अवसर है उसकी तुलना में मनचाही नौकरी व वेतन न मिलने के कारण लोगों के मन में उतना ही ज्यादा अवसाद पैदा हो रहा है।

अंतिम संस्कार की शुरुआत लोगों को एक बड़े हॉल में लाए जाने से होती है। जहां लोग अपनी वसीयत लिखते हैं। यह बताते हैं कि मरने के बाद उनकी कब्र पर क्या लिखा जाए व किस तरह के पत्थर लगाए जाए। वहां बड़ी तादाद में लकड़ी के कफन रखे होते हैं जिसमें यह अनुभव करने वाले व्यक्ति को 10 मिनट के लिए बंद कर दिया जाता है। फिर अंधेरा करके बहुत धीमे आवाज में कैसेट चला दिए जाते हैं जिसमें अच्छे-अच्छे भाषण होते हैं।

इसका अनुभव करने वाले एक व्यक्ति ने कहा कि जब वह कफन में था तो उसे लगा कि जिस व्यक्ति को वह अपना सबसे बड़ा दुश्मन समझता था उससे दुश्मनी रखकर उसने आखिर पाया क्या? उसे जीवन में लोगों को माफ करना व उनकी गलतियां भुलाना सीखना चाहिए क्योंकि एक-न-एक दिन हमें भी यह दुनिया छोड़ चले जाना है। तब हमारे विरोधी यहीं रह जाएंगे। इससे लोगों में दूसरो को क्षमा करने की भावनाएं पैदा होती है। एक बार आप मौत के प्रति गंभीर हो जाए तो जिदंगी के प्रति आपका रवैया ही बदल जाता है।

अब तक हजारो लोग इस तरह के अंतिम संस्कारों में हिस्सा ले चुके हैं। लोग अपने जुते के कपड़े उतार कर सिल्क के कपड़े पहनकर कफन में लेटते हैं तब उन्हें लगता है कि मौत ही भगवान का सबसे अच्छा उपहार है। करीब 40 मिनट तक चलने वाली अनुभव प्रक्रिया के बाद ज्यादातर लोग बहुत अच्छे इंसान बनकर बाहर निकलते हैं व जीने के प्रति उनका नजरिया काफी सकारात्मक हो जाता है।

ऐसा कुछ हमारे देश व समाज में भी होता है। अगर आप कभी किसी के अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए श्मशान घाट पर जाए तो वहां इस तरह की तमाम बाते लिखी पा जाएंगी कि तुम क्या साथ लाए थे क्या ले जाओंगे। खाली हाथ आए थे व खाली हाथ जाओगे। इसके बावजूद लोग मनमानी करते हुए जिदंगी जी रहे हैं।

हमारे यहां गरूड पुराण तो इस तरह के उपदेशो से भरा पड़ा है। मगर शमशान के बाहर निकलते ही लोग ये सारी अच्छी बातें भूल जाते हैं। और तो और लाश को जलाने के समय उसके चारो और खड़े होकर दुनियादारी में लिप्त होकर एक-दूसरे की बुराई करने लगते हैं। हमारे धर्म व समाज में तो मोक्ष का बहुत बड़ा महत्व है ताकि आत्मा को बार-बार जीवन न लेना पड़े। इसके लिए धर्म में एक नई व्यवस्था देखने में आई हैं जहां लोग अपना बेटा न होने या उनके द्वारा यह काम न करने की आशंका पर जीवित रहते हुए गया जाकर अपना श्राद्ध कर जाते हैं।

भारत में हिंदू अपनी मौत को लेकर इतने संवेदनशील होते हैं कि वे मरने के पहले बनारस ले जाए जाने का अनुरोध करते हैं व आक्सीजन का मास्क लगा कर वहां की किसी धर्मशाला में अपनी अंतिम सांसे लेते हैं ताकि उन्हें स्वर्ग मिल सके व बनारस के किसी घर पर उनका अंतिम संस्कार हो।

दक्षिण कोरिया में भी लोग घर के बाहर अस्पताल में मरना पसंद नहीं करते हैं उनकी कोशिश होती है कि मरने के पहले उन्हें घर लेकर आया जाए जहां वे आराम से अपने प्राण त्याग सके। वहां भी अंतिम संस्कार घर का सबसे बड़ा बेटा ही करता हैं। हमें शुरू से ही यह पढ़ाया जाता है कि जीवन एक मिथ्या है। इसके बावजूद हमारा लालच व दूसरे को बेवकूफ बनाकर उनसे लाभ उठाने की इच्छा कम नहीं होती है। भारत में जरूर बाबा उद्योग की तरह अंतिम संस्कार एक अच्छा धंधा बन सकता है। इसका स्टार्टअप चालू किया जा सकता है।

विवेक सक्सेना
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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