जिन्ना की मान लेते तो न बंटता देश ?

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15 अगस्त को यह खयाल उभर ही आता है कि क्या 1947 में भारत विभाजन टाला जा सकता था? कुछ लोग कहते हैं कि अंग्रेजों ने बंटवारा हम पर थोप दिया। लेकिन इतिहास का कोई भी छात्र बता देगा कि यह झूठ है। इस बारे में एक राय है, जिस पर काफी लोग यकीन करते हैं। कहते हैं कि एक तो मुहम्मद अली जिन्ना बहुत अड़ियल थे, दूसरी ओर कांग्रेस ने बंटवारे के खिलाफ खड़ा होने का दम नहीं दिखाया, लिहाजा देश बंट गया। लेकिन दुनियाभर के इतिहासकार इस राय से बिल्कुल भी इत्तिफाक नहीं रखते। भारत के एक बेहतरीन पत्रकार हैं आकार पटेल। उनकी एक किताब है ‘अवर हिंदू राष्ट्र’। मैंने उसमें विभाजन के बारे में बहुत अच्छा ब्योरा पढ़ा। जो लोग आकार को बीजेपी विरोधी मानकर उनसे चिढ़ते हों, वे चाहें तो रामचंद्र गुहा या पेरी एंडरसन जैसे इतिहासकारों को पढ़ सकते हैं।

1909 से जो लोकल इलेक्शन शुरू हुए तो ब्रिटिश राज ने मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचक मंडल बना दिया। यानी उन आरक्षित सीटों पर केवल मुसलमान वोट दे सकते थे। इस तरह पक्का किया गया कि उन्हें कम से कम एक हद तक नुमाइंदगी जरूर मिले। लेकिन वह मामला आजकल दलितों या आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों जैसा नहीं था। इन सीटों पर तो सभी पार्टियां दलित और आदिवसी उम्मीदवार खड़े कर सकती हैं। उस पुराने मुस्लिम निर्वाचक मंडल वाले सिस्टम में मुसलमानों ने लगभग एकतरफा तौर पर मुस्लिम लीग को वोट दिया। सेक्युलर मानी जाने वाली कांग्रेस को नजरंदाज कर दिया गया।

कांग्रेस ने कहा कि यह जो अलग निर्वाचक मंडल का खेल है, राष्ट्रीय भावना के लिए बहुत नुकसानदेह है। वह खेल दरअसल जमीनी हकीकत से जुड़ा था। मुसलमानों की आबादी करीब एक तिहाई थी, लेकिन सबसे ज्यादा वोट पाने वाले उम्मीदवार को विजेता घोषित करने की व्यवस्था में मुसलमानों के हाथ एक तिहाई से काफी कम सीटें आतीं। उनके लिए अगल निर्वाचक मंडल बना देने से कांग्रेस का दबदबा घट गया।

शेर ए पंजाब कहे जाने वाले लाला लाजपत राय का कहना था कि सेपरेट इलेक्टोरेट के जरिए मुसलमानों के साथ सत्ता में साझेदारी असंभव है। इसके बजाय उन्होंने विभाजन का यह प्रस्ताव रख दिया। भारतीय उपमहाद्वीप का अधिकांश हिस्सा हिंदुओं को मिले। मुसलमानों को पठानों की अक्सरियत वाला नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रॉविंस दिया जाए। धर्म के आधार पर पंजाब का बंटवारा किया जाए और पश्चिम वाला आधा हिस्सा भी उन्हें मिले। इसी तरह धर्म के आधार पर बंगाल विभाजन हो और पूरब का आधा हिस्सा मुसलमानों को दिया जाए। साथ ही, सिंध भी उन्हें दे दिया जाए। लाला लाजपत राय ने यह प्रस्ताव रखा था 1924 में। यानी तब, जब पाकिस्तान शब्द भी नहीं गढ़ा गया था। लेकिन 1947 में जब देश बंटा, तो हूबहू इसी तरह बंटा।

सेक्युलर होने के दावों के बावजूद कांग्रेस में हिंदुओं की अक्सरियत थी। 1914 में हाल यह था कि इसके सदस्यों में एक फीसदी से भी कम मुसलमान थे। 1915 में आंकड़ा दो फीसदी और 1916 में तीन फीसदी था। मोतीलाल नेहरू ने तो बिना लागलपेट के कांग्रेस को हिंदुओं की पार्टी करार दिया था। यह तस्वीर तो तब बदली, जब महात्मा गांधी के हाथ में कांग्रेस की बागडोर गई। मुसलमानों के खिलाफत मूवमेंट का साथ देकर महात्मा उनके बगलगीर बने। लेकिन 1922 में असहयोग आंदोलन के दौरान जब चौरीचौरा में एक पुलिस थाना फूंक दिया गया तो महात्मा ने आंदोलन वापस लेने का ऐलान कर दिया। और मुसलमानों के साथ बना रिश्ता भी उसी के चलते टूट गया। महात्मा ने आंदोलन वापस लेने का जो फैसला किया, उसमें मुसलमानों से कोई मशविरा नहीं किया था। इस तरह उन्होंने उनका भरोसा खो दिया।

शुरुआती दिनों में कांग्रेसी रहे जिन्ना ने 1927 में मुस्लिम संगठनों की एक ऑल इंडिया मीटिंग बुलाई। उसमें ‘दिल्ली प्रस्ताव’ सामने रखे गए। उनमें अलग निर्वाचक मंडल की मांग नहीं की गई। इसके बजाय कहा गया कि मुसलमानों के लिए कैबिनेट की एक तिहाई सीटें रिजर्व की जाएं। साथ ही, पंजाब और बंगाल में उनकी आबादी के हिसाब से सीटें आरक्षित हों। यह मांग भी की गई कि सिंध, बलूचिस्तान और नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रॉविंस में नए प्रांत बनाए जाएं। शुरू में तो कांग्रेस ने ये प्रस्ताव मान लिए, लेकिन हिंदू महासभा के मदन मोहन मालवीय ने कड़ी आपत्ति की। कांग्रेस उनके आगे झुक गई और एक सुनहरा मौका हाथ से निकल गया।

फिर 1928 में मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक रिपोर्ट जारी की गई। कहा गया कि अलग निर्वाचक मंडल तो न बनाया जाए, लेकिन आबादी के लिहाज से मुसलमानों के लिए सीटें रिजर्व की जाएं। यह भी कहा गया कि न तो केंद्र सरकार में इनके लिए कोई रिजर्व सीट हो और न ही पंजाब और बंगाल में धर्म के आधार पर सीटें रिजर्व की जाएं। सांप्रदायिक आधार पर रिजर्वेशन होने पर दोनों राज्यों में मुस्लिम बहुमत ही होता।

इसके बाद जिन्ना ने एक प्रस्ताव रखा डीसेंट्रालाइज्ड फेडरल इंडिया का, जिसमें सभी प्रांतों को एकसमान स्वायत्तता मिले। साथ ही, अलग निर्वाचक मंडल बनाए जाएं और प्रांतीय और केंद्र सरकारों में एक तिहाई कैबिनेट मंत्री मुस्लिम समुदाय के हों। साफ था कि कांग्रेस और जिन्ना की राय एक नहीं थी। दोनों ही ओर से मतभेद बढ़ते गए। इतिहासकार के के अजीज कहते हैं कि 1931 से 1940 के बीच विभाजन के जो 33 प्रस्ताव आए, उनमें से केवल 15 प्रस्ताव मुसलमानों ने दिए। बंटवारा तमाम हिंदू भी चाहते थे।

भारत सरकार अधिनियम 1935 के तहत प्रांतों में चुनाव कराने और सरकारें बनाने की व्यवस्था की गई। 1937 में हुए इन चुनावों में कांग्रेस का बोलबाला रहा। इतिहासकार पेरी एंडरसन कहते हैं कि इसके बाद नेहरू को लगा कि असल राजनीतिक लड़ाई अब कांग्रेस और अंग्रेजों के बीच है, मुस्लिम लीग और रजवाड़े इस जंग में हाशिए पर हैं। कांग्रेस पार्टी के सदस्यों में तब भी 97 फीसदी हिंदू थे। मुस्लिमों के लिए आरक्षित सीटों में से 90 फीसदी पर कांग्रेस को मुसलमान उम्मीदवार ही नहीं मिले। रिजर्व कैटेगरी की सीटों पर मुस्लिम लीग ने एकतरफा जीत दर्ज की।

दूसरी आलमी जंग के बाद 1945-46 में चुनाव कराए गए। तब प्रांतों की 495 मुस्लिम सीटों में से 446 पर मुस्लिम लीग को जीत मिली। मुसलमानों के लिए तय की गई हर सेंट्रल सीट भी उसके खाते में ही गई। बाकी सीटों पर एक बार फिर कांग्रेस का जादू चला। पर अफसोस की बात यह रही कि वे नतीजे पूरी तरह सांप्रदायिक तस्वीर दिखा रहे थे।

बहरहाल एक अंतरिम कैबिनेट बनी। जवाहरलाल नेहरू को प्रधानमंत्री बनाया गया और लियाकत अली को फाइनेंस मिनिस्टर। लियाकत ने जो बजट बनाया, उसमें उद्योगपतियों पर भारी टैक्स लगा दिया। अधिकतर कांग्रेसियों ने इसे हिंदू विरोधी रुख करार दिया क्योंकि ज्यादातर उद्योगपति हिंदू थे। हालांकि टैक्स की मार पारसियों और ईसाइयों पर भी पड़ी। और हां, ताकतवर टाटा घराने पर भी।

बतौर फाइनेंस मिनिस्टर लियाकत अली को यह पावर हासिल थी कि वह सरकारी खर्च से जुड़े प्रस्तावों पर कैंची चला दें। लिहाजा कांग्रेसी मंत्रियों के ऐसे प्रस्तावों के साथ उन्होंने सिलसिलेवार ढंग से वही सुलूक किया। कई कांग्रेस नेता इससे नाराज हुए। उनका कहना था कि मुस्लिम लीग के साथ काम करना असंभव है। नौबत यहां तक आ गई कि जो कांग्रेस 1945 तक कहती थी कि देश बांटने की बात सोची भी नहीं जा सकती, उसी कांग्रेस ने 1947 में माउंटबेटन का प्रस्ताव तुरंत मान लिया।

जिन्ना ने जो प्रस्ताव रखे थे, उनके तहत कांग्रेस अगर सत्ता में साझेदारी को राजी हो गई होती तो उस खौफनाक बंटवारे से बचा जा सकता था। लेकिन एक सवाल यह भी है कि तब देश में फिरकापरस्ती जड़ें जमा रही थी और ऐसे में क्या अविभाजित भारत एक गृह युद्ध में फंस जाता? हां, शायद ऐसा हो सकता था। लिहाजा मेरी नजर में बंटवारा ही सबसे अच्छा उपाय था। लेकिन वह भारत पर थोपा नहीं गया। अगर जिन्ना उसके लिए अड़े थे तो नेहरू भी पीछे नहीं थे। उन्होंने भी वह विकल्प चुना ही था।

एसएसए अय्यर
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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