प्रोटीन की कमी से शरीर को बीमारियां दबोच लेती हैं और आदमी की रोग से लड़ने की शक्ति कम हो जाती है। मरना फिर भी है। खा-पीकर मरने की बीमारिया अलग, भूखे रहो तो मरने की बीमारियां अलग। दाने-दाने पर नाम लिखा है। अपने नाम के दाने जल्दी खा लो और फूटों इस जगह से। या धीरे-धीरे कुतरों और अड़े रहो सौ साल।
चूहे फोकट का अनाज नहीं खाते। वे विज्ञान ते विकास में मनुष्य की बड़ी मदद करते हैं। जिस दवा को चखने से आदमी डरता है, उस दवा को छह माह तक चूहों को असर देखने के लिए खिलाया जाता है। पहले वे बीमार किए जाते हैं, फिर उनका इलाज होता है। तब कहीं जाकर इतनी-सी बात साबित होती है कि अमुक दवा से बीमार आदमी का इलाज संभव है। बड़े कष्ट और बहुत जिम्मेदारियां हैं चूहे पर। विज्ञान का पूरा गणेश उसकी पीठ पर बैठा प्रगति कर रहा है, पर उसकी शहादत किसी मानवी रजिस्टर में नोट भी नहीं होती। चूहों को आदर से देखता हूं, तो उसका यही कारण है। मुझे उनकी हरकतें उचित लगती हैं। क्या करें, कहां जाएं? प्रयोग के पात्र बनें, मर जाएं। अरे भाई, उनका भी जीवन है। अभी एक वैज्ञानिक ने चूहों को कम खिलाकर यह साबित कर दिया कि इससे उनकी उम्र लंबी हुई। कुछ को ज्यादा खिलाया जाता था, वे जल्दी मर गए।
कैसे मरे, पता नहीं, शायद गैस्टोएंट्रा इटिस या हार्ट अटैक से मर होंगे। ज्यादा खाने वाले इसी तरह शान से मरते हैं। अब उस वैज्ञानिक ने सिद्धांत निकाला है कि मनुष्य की सामान्य आयु सो वर्ष से एक सौ बीस वर्ष हो सकती है, यदि वह कम खाए। अभी जितना खा रहा है, उसका आधा खाए और लंबा जिए। अब मानव-जाति के दो खेमें हैं। जो खाने के लिए जीते हैं और जो जीने के लिए खाते हैं। हम इस विषय में चिंतन कर सकते हैं कि कितना खाया जाए? अबी सामान्यतः चिंतन का दायरा यह रहा है कि फल भी लिया जाए या कल पार्टी में ज्यादा खाना हो गया या चलो चाट भी खा लें। याजो सुबह भारी नाश्ता कर लिया था, इस पर एक गिलास दूध और पी लो। मनुष्य इन्हीं सब बातों पर सोचता चूरन खरीदता रहता है और कल से एक्सारसाइज शुरू करने की सुखद कल्पना में जीता है। यह ठीक है कि इस में वह जल्दी मर जाता है।
मगर इसका दर्शन यह है कि भूखे रहना भी कोई जिन्दगी है? मरना ही है तो खा-पीकर मरो, खाते-पीते मरो, दूसरों के खाने-पीने का इंतजाम करके मरो। हाय तो बाकी न रहे। फिर से जन्म तो न लेना पड़े कि भगवान से कह रहे हैं, प्रभु, उस जन्म में हम चाइनीज खाना न खा सके, हमें फिर से जन्म दे दो। बुढ़ापे में भी जो जबान लपलपाती है- हलवाई की दुकान के सामने से गुजरते हुए तो वह आत्मा है, जो शरीर से कह रही है कि चाट ले एक दोना रबड़ी। रबड़ी उसे दो मत और लंबी उम्र तक शरीर में अटकाए रखो तो यह कहां का न्याय है? आत्मा तो मुक्ति चाहती है। खा-पीकर तृप्त होने के बाद परमात्मा से जल्दी मिलना चाहती है। छोटी उम्र का यही कारण है। खूब खाया, जल्दी मरे। और मैं कहता हूं कि वे लोग जिन्हें भरपेट दोनों टाइम भोजन नहीं मिल रहा है, वे क्यों नहीं लंबी उम्र का यही कारण है। खूब खाया, जल्दी मरे।
और मैं कहता हूं कि वे लोग जिन्हें भरपेट दोनों टाइम भोजन नहीं मिल रहा है, वे क्यों नहीं लंबी उम्र जीते हैं? कोई भिखमंगा गरीब एक सौ बीस साल का हुआ? पर चूहों को बीमारियां दबोच लेती हैं और आदमी की रोग से लड़ने की शक्ति कम हो जाती है मरना फिर भी है। खा-पीकर मरने की बीमारियां अलग, भूखे रहो तो मरने की बीमारियां अगल, भूखे रहो तो मरने की बीमारियां अगल। दाने-दाने पर नाम लिखा है। अपने नाम के दाने जल्दी खा लो और फूटो इस जगत से। या धीरे-धीरे कुतरो और अड़े रहो सौ साल। यों भी कौन-सी गवर्नमेंट साठ की उम्र में रिटायर करने के बाद और साठ साल पेंशन देगी? कौन संपादक एक सौ बीस वर्ष तक भुक्खड़ जिंदगी जी रहे लेखक का प्रतिदिन छापेगा? इसलिए खाओ और मरो।
स्वर्गीय शरद जोशी
लेखक देश के जाने-माने व्यंगकार थे, उनका ये व्यंग बेहद मौजूं है आज के हालात पर