चुनाव आयोग के पास अधिकार क्या ?

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केंद्रीय चुनाव आयोग, सुनने में इतना भारी-भरकम नाम है पर सवाल है कि इसके पास क्या अधिकार हैं? यह एक संवैधानिक संस्था है। इसके ऊपर देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने की महती जिम्मेदारी है। इस लिहाज से यह लोकतंत्र की प्रहरी संस्था है। पर क्या इस काम को बेहतर तरीके से अंजाम करने के लिए आयोग के पास जरूरी शक्तियां हैं? इसका जवाब होगा कि आयोग के पास स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए बहुत मामूली अधिकार हैं और उसे बहुत छोटी-छोटी चीजों के लिए उसे कभी सरकार का, कभी सुप्रीम कोर्ट का तो कभी राजनीतिक दलों का मुंह देखना पड़ता है। उसका काम सिर्फ प्रबंधकीय जिम्मेदारी को पूरा करना है। जैसे मतदाता सूची तैयार करना, मतदान केंद्रों की सूची बनाना, मतदानकर्मियों को प्रशिक्षण देना, उन्हें मतदान केंद्रों पर पहुंचाना और वोटों की गिनती कराना। इस काम के लिए किसी संवैधानिक संस्था की जरूरत नहीं है, जैस अमेरिका में कोई केंद्रीय चुनाव आयोग नहीं है। किसी भी निजी संस्था को यह काम सौंप दिया जाए तो वह ज्यादा बेहतर ढंग से इसे करा लेगी।

चुनाव आयोग के अधिकारों पर चर्चा की जरूरत इसलिए है क्योंकि मध्य प्रदेश में 28 सीटों को लेकर हो रहे उपचुनाव में दो विवाद ऐसे हुए हैं, जिनमें सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा है। एक मामले में तो सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग के फैसले को पलटते हुए यह भी कहा कि आपको ऐसा करने का अधिकार नहीं है। आयोग ने सिर्फ इतना किया थी कि चुनाव प्रचार में बदजुबानी करने वाले एक नेता का स्टार प्रचारक का दर्जा खत्म कर दिया था वह भी प्रचार बंद होने के 48 घंटे पहले। इस एक मामूली से फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह से आयोग के अधिकार का मुद्दा उठा कर उसे फटकार लगाई उससे जाहिर हो गया कि चुनाव आयोग के पास सचमुच कोई अधिकार नहीं है।

दूसरा मुद्दा भी इसी तरह अहम है। मध्य प्रदेश में चुनाव प्रचार के दौरान कोरोना वायरस के रोकने के लिए जारी दिशा-निर्देशों का कहीं पालन नहीं हो रहा था। इसे देख कर हाई कोर्ट ने रैलियों पर रोक लगा दी और कहा कि सिर्फ वर्चुअल रैली होगी। अगर कोई पार्टी वर्चुअल रैली नहीं कर पाती है तो उसे कलेक्टर को इसका पुख्ता कारण बताना होगा और तभी रैली की इजाजत मिलेगी। राज्य सरकार ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी और सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के आदेश पर रोक लगा दी। हालांकि साथ ही य़ह भी कहा कि अगर पार्टियां दिशा-निर्देशों का पालन कर रही होतीं तो हाई कोर्ट को यह आदेश देने की जरूरत नहीं होती।

सवाल है कि पार्टियां कोरोना की गाइडलाइंस का पालन नहीं कर रही हैं, यह देखना चुनाव आयोग का काम नहीं है? जब चुनाव आयोग का जिम्मा स्वंतत्र व निष्पक्ष चुनाव कराने का है और सारी नीतियों व कानूनों पर अमल कराना उसकी जिम्मेदारी है तो उसने क्यों नहीं इस बात का संज्ञान लिया कि रैलियों में सोशल डिस्टेंसिंग नहीं हो रही है, लोग मास्क नहीं पहन रहे हैं, सैनिटाइजर का इस्तेमाल नहीं हो रहा है? बिहार में तो स्थिति और भी खराब है। वहां बड़ी रैलियां हो रही हैं, हजारों लोग जुट रहे हैं और एक भी नियम का पालन नहीं हो रहा है। पर चुनाव आयोग ने इस पर कोई संज्ञान नहीं लिया है। तभी चुनाव आयोग का काम अदालतें कर रही हैं।

बहरहाल, चुनाव आयोग ने एक नेता का स्टार प्रचारक का दर्जा छीना, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने बहाल कर दिया और आयोग को उसके अधिकारों की याद दिलाते हुए फटकार भी लगाई। सो, सवाल है कि अगर कोई नेता चुनाव प्रचार में बदजुबानी कर रहा है और बार बार मना करने के बावजूद कर रहा है तो चुनाव आयोग क्या करेगा? चुनाव आयोग सिर्फ यह कर सकता है कि वह बदजुबानी करने वाले नेता को चेतावनी दे, जैसा उसने मध्य प्रदेश के भाजपा नेताओं के मामले में किया या उनकी आलोचना करे। पर इससे क्या लोग बदजुबानी करना बंद कर देंगे? क्या चेतावनी देने और आलोचना करने से भड़काऊ भाषण बंद हो जाएंगे? पिछले साल लोकसभा चुनाव में अनेक नेताओं और यहां तक की केंद्रीय मंत्रियों तक ने भड़काऊ भाषण दिए। प्रधानमंत्री ने चुनाव प्रचार में सेना का इस्तेमाल किया, जिसके लिए दर्जनों शिकायतें चुनाव आयोग में पुहंची। लेकिन क्या हुआ? किसी मामले में आयोग ने कोई कार्रवाई नहीं की।

जब नेताओं की बदजुबानी रोकने की बात आती है तो आयोग कुछ नहीं कर सकता है। भड़काऊ भाषणों के मामले में आयोग कुछ नहीं कर सकता है। अपराधियों या अपराधी छवि वालों को टिकट देने के मामले में आयोग कुछ नहीं कर सकता है। कोई उम्मीदवार वोट को प्रभावित करने के लिए गलत आचरण करता पाया जाता है तो आयोग कुछ नहीं कर सकता है तो फिर आयोग क्या कर सकता है? आयोग किसी का स्टार प्रचारक का दर्जा नहीं छीन सकता क्योंकि पार्टी उसे यह दर्जा देती है। तो इसी लॉजिक से वह किसी की उम्मीदवारी रद्द नहीं कर सकता क्योंकि टिकट भी उसे पार्टी देती है। वह किसी के चुनाव पर रोक नहीं लगा सकता क्योंकि वह किसी पार्टी से चुनाव लड़ रहा है। उसके बोलने पर रोक नहीं लगा सकते क्योंकि उसे बोलने की आजादी मिली हुई है। अगर वहीं किसी गलत आचरण में पकड़ा जाता है तो ज्यादा से ज्यादा एक मुकदमा दर्ज किया जा सकता है। बस इसके बाद आयोग की भूमिका खत्म हो जाती है। सवाल है कि ऐसे आयोग की जरूरत क्या है? अगर सचमुच देश में स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव में चुनाव आयोग की भूमिका सुनिश्चित करनी है तो उसे कुछ ऐसे अधिकार देने होंगे, जिससे उसे अपने काम के लिए दूसरी एजेंसियों का मुंह न देखना पड़े और जिससे पार्टियों व उम्मीदवारों में भय बने।

अजीत कुमार
(लेखक पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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